पूजा से पहले शौच और आचमन करना क्यों जरूरी???????
* सकल सौच करि राम नहावा। सुचि सुजान बट छीर मगावा॥
अनुज सहित सिर जटा बनाए। देखि सुमंत्र नयन जल छाए॥
भावार्थ:-शौच के सब कार्य करके (नित्य) पवित्र और सुजान श्री रामचन्द्रजी ने स्नान किया। फिर बड़ का दूध मँगाया और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित उस दूध से सिर पर जटाएँ बनाईं। यह देखकर सुमंत्रजी के नेत्रों में जल छा गया॥
संध्या वंदन के समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है। संधिकाल में ही संध्या वंदन किया जाता है। वेदज्ञ और ईश्वरपरायण लोग इस समय प्रार्थना करते हैं। ज्ञानीजन इस समय ध्यान करते हैं। भक्तजन कीर्तन करते हैं।
पुराणिक लोग देवमूर्ति के समक्ष इस समय पूजा या आरती करते हैं। तब सिद्ध हुआ की संध्योपासना या हिन्दू प्रार्थना के चार प्रकार हो गए हैं- (1)प्रार्थना-स्तुति, (2)ध्यान-साधना, (3)कीर्तन-भजन और (4)पूजा-आरती।
व्यक्ति की जिस में जैसी श्रद्धा है वह वैसा करता है।
भारतीय परंपरा में पूजा, प्रार्थना और दर्शन से पहले शौचा और आचमन करने का विधान है। बहुत से लोग मंदिर में बगैर शौच या आचमन किए जले जाते हैं जो कि अनुचित है। प्रात्येक मंदिर के बाहर या प्रांगण में नल जल की उचित व्यवस्था होनी चाहिए जहां व्यक्ति बैठकर अच्छे से खुद को शुद्ध कर सके। जल का उचित स्थान नहीं है तो यह मंदिर दोष में गिना जाएगा।
शौच का अर्थ : - शौच अर्थात शुचिता, शुद्धता, शुद्धि, विशुद्धता, पवित्रता और निर्मलता। शौच का अर्थ शरीर और मन की बाहरी और आंतरिक पवित्रता से है। आचमन से पूर्व शौचादि से निवृत्त हुआ जाता है।
शौच का अर्थ है अच्छे से मल-मूत्र त्यागना भी है। शौच के दो प्रकार हैं- बाह्य और आभ्यन्तर। बाह्य का अर्थ बाहरी शुद्धि से है और आभ्यन्तर का अर्थ आंतरिक अर्थात मन वचन और कर्म की शुद्धि से है। जब व्यक्ति शरीर, मन, वचन और कर्म से शुद्ध रहता है तब उसे स्वास्थ्य और सकारात्मक ऊर्जा का लाभ मिलना शुरू हो जाता है।
*शौचादि से निवृत्ति होने के बाद पूजा, प्रार्थना के पूर्व आचमन किया जाता है। मंदिर में जाकर भी सबसे पहले आचमन किया जाता है।
शौच के दो प्रकार हैं- बाह्य और आभ्यन्तर।
*बाहरी शुद्धि- हमेशा दातुन कर स्नान करना एवं पवित्रता बनाए रखना बाह्य शौच है। कितने भी बीमार हों तो भी मिट्टी, साबुन, पानी से थोड़ी मात्रा में ही सही लेकिन बाहरी पवित्रता अवश्य बनाए रखनी चाहिए। आप चाहे तो शरीर के जो छिद्र हैं उन्हें ही जल से साफ और पवित्र बनाएँ रख सकते हैं। बाहरी शुद्धता के लिए अच्छा और पवित्र जल-भोजन करना भी जरूरी है। अपवित्र या तामसिक खानपान से बाहरी शुद्धता भंग होती है।
*आंतरिक शुद्धि- आभ्यन्तर शौच उसे कहते हैं जिसमें हृदय से रोग-द्वेष तथा मन के सभी खोटे कर्म को दूर किया जाता है। जैसे क्रोध से मस्तिष्क और स्नायुतंत्र क्षतिग्रस्त होता है।
लालच, ईर्ष्या, कंजूसी आदि से मन में संकुचन पैदा होता है जो शरीर की ग्रंथियों को भी संकुचित कर देता है। यह सभी हमारी सेहत को प्रभावित करते हैं। मन, वचन और कर्म से पवित्र रहना ही आंतरिक शुद्धता के अंतर्गत आता है अर्थात अच्छा सोचे, बोले और करें।
शौच के लाभ- ईर्ष्या, द्वेष, तृष्णा, अभिमान, कुविचार और पंच क्लेश को छोड़ने से दया, क्षमा, नम्रता, स्नेह, मधुर भाषण तथा त्याग का जन्म होता है। इससे मन और शरीर में जाग्रति का जन्म होता है। विचारों में सकारात्मकता बढ़कर उसके असर की क्षमता बढ़ती है। रोग और शौक से छुटकारा मिलता है। शरीर स्वस्थ और सेहतमंद अनुभव करता है। निराशा, हताशा और नकारात्मकता दूर होकर व्यक्ति की कार्यक्षमता बढ़ती है।
जानिए आचमन के बारे में विस्तार से...
आचमन का अर्थ : - आचमन का अर्थ होता है जल पीना। प्रार्थना, दर्शन, पूजा, यज्ञ आदि आरंभ करने से पूर्व शुद्धि के लिए मंत्र पढ़ते हुए जल पीना ही आचमन कहलाता है। इससे मन और हृदय की शुद्धि होती है। आचमनी का अर्थ एक छोटा तांबे का लोटा और तांबे की चम्मच को आचमनी कहते हैं। छोटे से तांबे के लोटे में जल भरकर उसमें तुलसी डालकर हमेशा पूजा स्थल पर रखा जाता है। यह जल आचमन का जल कहलाता है। इस जल को तीन बार ग्रहण किया जाता है। माना जाता है कि ऐसे आचमन करने से पूजा का दोगुना फल मिलता है।
आचमन विधि : - वैसे तो आचमन के कई विधान और मंत्र है लेकिन यहां छोटी सी ही विधि प्रस्तुत है। आचमन सदैव उत्तर, ईशान या पूर्व दिशा की ओर मुख करके ही किया जाता है अन्य दिशाओं की ओर मुंह करके कदापि न करें। संध्या के पात्र तांबे का लोटा, तारबन, आचमनी, टूक्कस हाथ धोने के लिए कटोरी, आसन आदि लेकर के गायत्री छंद से इस संध्या की शुरुआत की जाती है। प्रातःकाल की संध्या तारे छिपने के बाद तथा सूर्योदय पूर्व करते हैं।
आचमन के लिए जल इतना लें कि हृदय तक पहुंच जाए। अब हथेलियों को मोड़कर गाय के कान जैसा बना लें कनिष्ठा व अंगुष्ठ को अलग रखें। तत्पश्चात जल लेकर तीन बार निम्न मंत्र का उच्चारण करते हैं:- हुए जल ग्रहण करें-
ॐ केशवाय नम:
ॐ नाराणाय नम:
ॐ माधवाय नम:
ॐ ह्रषीकेशाय नम:, बोलकर ब्रह्मतीर्थ (अंगुष्ठ का मूल भाग) से दो बार होंठ पोंछते हुए हस्त प्रक्षालन करें (हाथ धो लें)। उपरोक्त विधि ना कर सकने की स्थिति में केवल दाहिने कान के स्पर्श मात्र से ही आचमन की विधि की पूर्ण मानी जाती है।
आचमन मुद्रा : - शास्त्रों में कहा गया है कि,,,
त्रिपवेद आपो गोकर्णवरद् हस्तेन त्रिराचमेत्। यानी आचमन के लिए बाएं हाथ की गोकर्ण मुद्रा ही होनी चाहिए तभी यह लाभदायी रहेगा। गोकर्ण मुद्रा बनाने के लिए दर्जनी को मोड़कर अंगूठे से दबा दें। उसके बाद मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका को परस्पर इस प्रकार मोड़ें कि हाथ की आकृति गाय के कान जैसी हो जाए।
भविष्य पुराण के अनुसार जब पूजा की जाए तो आचमन पूरे विधान से करना चाहिए। जो विधिपूर्वक आचमन करता है, वह पवित्र हो जाता है। सत्कर्मों का अधिकारी होता है। आचमन की विधि यह है कि हाथ-पांव धोकर पवित्र स्थान में आसन के ऊपर पूर्व से उत्तर की ओर मुख करके बैठें। दाहिने हाथ को जानु के अंदर रखकर दोनों पैरों को बराबर रखें। फिर जल का आचमन करें।
आचमन करते समय हथेली में 5 तीर्थ बताए गए हैं- 1. देवतीर्थ, 2. पितृतीर्थ, 3. ब्रह्मातीर्थ, 4. प्रजापत्यतीर्थ और 5. सौम्यतीर्थ।
कहा जाता है कि अंगूठे के मूल में ब्रह्मातीर्थ, कनिष्ठा के मूल में प्रजापत्यतीर्थ, अंगुलियों के अग्रभाग में देवतीर्थ, तर्जनी और अंगूठे के बीच पितृतीर्थ और हाथ के मध्य भाग में सौम्यतीर्थ होता है, जो देवकर्म में प्रशस्त माना गया है।
आचमन हमेशा ब्रह्मातीर्थ से करना चाहिए। आचमन करने से पहले अंगुलियां मिलाकर एकाग्रचित्त यानी एकसाथ करके पवित्र जल से बिना शब्द किए 3 बार आचमन करने से महान फल मिलता है। आचमन हमेशा 3 बार करना चाहिए।
आचमन के बारे में स्मृति ग्रंथ में लिखा है कि
प्रथमं यत् पिबति तेन ऋग्वेद प्रीणाति।
यद् द्वितीयं तेन यजुर्वेद प्रीणाति।
यत् तृतीयं तेन सामवेद प्रीणाति।
श्लोक का अर्थ है कि आचमन क्रिया में हर बार एक-एक वेद की तृप्ति प्राप्त होती है। प्रत्येक कर्म के आरंभ में आचमन करने से मन, शरीर एवं कर्म को प्रसन्नता प्राप्त होती है। आचमन करके अनुष्ठान प्रारंभ करने से छींक, डकार और जंभाई आदि नहीं होते हालांकि इस मान्यता के पीछे कोई उद्देश्य नहीं है।
पहले आचमन से ऋग्वेद और द्वितीय से यजुर्वेद और तृतीय से सामवेद की तृप्ति होती है। आचमन करके जलयुक्त दाहिने अंगूठे से मुंह का स्पर्श करने से अथर्ववेद की तृप्ति होती है। आचमन करने के बाद मस्तक को अभिषेक करने से भगवान शंकर प्रसन्न होते हैं। दोनों आंखों के स्पर्श से सूर्य, नासिका के स्पर्श से वायु और कानों के स्पर्श से सभी ग्रंथियां तृप्त होती हैं। माना जाता है कि ऐसे आचमन करने से पूजा का दोगुना फल मिलता है।
"शौच ईपसु: सर्वदा आचामेद एकान्ते प्राग उदड़्ग मुख:" (मनुस्मृति)
अर्थात जो पवित्रता की कामना रखता है उसे एकान्त में आचमन अवश्य करना चाहिए। 'आचमन' कर्मकांड की सबसे जरूरी विधि मानी जाती है। वास्तव में आचमन केवल कोई प्रक्रिया नहीं है। यह हमारी बाहरी और भीतरी शुद्धता का प्रतीक है।
“एवं स ब्राह्मणों नित्यमुस्पर्शनमाचरेत्।
ब्रह्मादिस्तम्बपर्यंन्तं जगत् स परितर्पयेत्॥”
प्रत्येक कार्य में आचमन का विधान है। आचमन से हम न केवल अपनी शुद्धि करते हैं अपितु ब्रह्मा से लेकर तृण तक को तृप्त कर देते हैं। जब हम हाथ में जल लेकर उसका आचमन करते हैं तो वह हमारे मुंह से गले की ओर जाता है, यह पानी इतना थोड़ा होता है कि सीधे आंतों तक नहीं पहुंचता।
हमारे हृदय के पास स्थित ज्ञान चक्र तक ही पहुंच पाता है और फिर इसकी गति धीमी पड़ जाती है। यह इस बात का प्रतीक है कि हम वचन और विचार दोनों से शुद्ध हो गए हैं तथा हमारी मन:स्थिति पूजा के लायक हो गई है। आचमन में तांबे के विशेष पात्र से हथेली में जल लेकर ग्रहण किया जाता है। उसके बाद खुद पर जल छिड़क कर शुद्ध किया जाता है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि- नींद से जागने के बाद, भूख लगने पर, भोजन करने के बाद, छींक आने पर, असत्य भाषण होने पर, पानी पीने के बाद, और अध्ययन करने के बाद आचमन जरूर करें।
* सकल सौच करि राम नहावा। सुचि सुजान बट छीर मगावा॥
अनुज सहित सिर जटा बनाए। देखि सुमंत्र नयन जल छाए॥
भावार्थ:-शौच के सब कार्य करके (नित्य) पवित्र और सुजान श्री रामचन्द्रजी ने स्नान किया। फिर बड़ का दूध मँगाया और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित उस दूध से सिर पर जटाएँ बनाईं। यह देखकर सुमंत्रजी के नेत्रों में जल छा गया॥
संध्या वंदन के समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है। संधिकाल में ही संध्या वंदन किया जाता है। वेदज्ञ और ईश्वरपरायण लोग इस समय प्रार्थना करते हैं। ज्ञानीजन इस समय ध्यान करते हैं। भक्तजन कीर्तन करते हैं।
पुराणिक लोग देवमूर्ति के समक्ष इस समय पूजा या आरती करते हैं। तब सिद्ध हुआ की संध्योपासना या हिन्दू प्रार्थना के चार प्रकार हो गए हैं- (1)प्रार्थना-स्तुति, (2)ध्यान-साधना, (3)कीर्तन-भजन और (4)पूजा-आरती।
व्यक्ति की जिस में जैसी श्रद्धा है वह वैसा करता है।
भारतीय परंपरा में पूजा, प्रार्थना और दर्शन से पहले शौचा और आचमन करने का विधान है। बहुत से लोग मंदिर में बगैर शौच या आचमन किए जले जाते हैं जो कि अनुचित है। प्रात्येक मंदिर के बाहर या प्रांगण में नल जल की उचित व्यवस्था होनी चाहिए जहां व्यक्ति बैठकर अच्छे से खुद को शुद्ध कर सके। जल का उचित स्थान नहीं है तो यह मंदिर दोष में गिना जाएगा।
शौच का अर्थ : - शौच अर्थात शुचिता, शुद्धता, शुद्धि, विशुद्धता, पवित्रता और निर्मलता। शौच का अर्थ शरीर और मन की बाहरी और आंतरिक पवित्रता से है। आचमन से पूर्व शौचादि से निवृत्त हुआ जाता है।
शौच का अर्थ है अच्छे से मल-मूत्र त्यागना भी है। शौच के दो प्रकार हैं- बाह्य और आभ्यन्तर। बाह्य का अर्थ बाहरी शुद्धि से है और आभ्यन्तर का अर्थ आंतरिक अर्थात मन वचन और कर्म की शुद्धि से है। जब व्यक्ति शरीर, मन, वचन और कर्म से शुद्ध रहता है तब उसे स्वास्थ्य और सकारात्मक ऊर्जा का लाभ मिलना शुरू हो जाता है।
*शौचादि से निवृत्ति होने के बाद पूजा, प्रार्थना के पूर्व आचमन किया जाता है। मंदिर में जाकर भी सबसे पहले आचमन किया जाता है।
शौच के दो प्रकार हैं- बाह्य और आभ्यन्तर।
*बाहरी शुद्धि- हमेशा दातुन कर स्नान करना एवं पवित्रता बनाए रखना बाह्य शौच है। कितने भी बीमार हों तो भी मिट्टी, साबुन, पानी से थोड़ी मात्रा में ही सही लेकिन बाहरी पवित्रता अवश्य बनाए रखनी चाहिए। आप चाहे तो शरीर के जो छिद्र हैं उन्हें ही जल से साफ और पवित्र बनाएँ रख सकते हैं। बाहरी शुद्धता के लिए अच्छा और पवित्र जल-भोजन करना भी जरूरी है। अपवित्र या तामसिक खानपान से बाहरी शुद्धता भंग होती है।
*आंतरिक शुद्धि- आभ्यन्तर शौच उसे कहते हैं जिसमें हृदय से रोग-द्वेष तथा मन के सभी खोटे कर्म को दूर किया जाता है। जैसे क्रोध से मस्तिष्क और स्नायुतंत्र क्षतिग्रस्त होता है।
लालच, ईर्ष्या, कंजूसी आदि से मन में संकुचन पैदा होता है जो शरीर की ग्रंथियों को भी संकुचित कर देता है। यह सभी हमारी सेहत को प्रभावित करते हैं। मन, वचन और कर्म से पवित्र रहना ही आंतरिक शुद्धता के अंतर्गत आता है अर्थात अच्छा सोचे, बोले और करें।
शौच के लाभ- ईर्ष्या, द्वेष, तृष्णा, अभिमान, कुविचार और पंच क्लेश को छोड़ने से दया, क्षमा, नम्रता, स्नेह, मधुर भाषण तथा त्याग का जन्म होता है। इससे मन और शरीर में जाग्रति का जन्म होता है। विचारों में सकारात्मकता बढ़कर उसके असर की क्षमता बढ़ती है। रोग और शौक से छुटकारा मिलता है। शरीर स्वस्थ और सेहतमंद अनुभव करता है। निराशा, हताशा और नकारात्मकता दूर होकर व्यक्ति की कार्यक्षमता बढ़ती है।
जानिए आचमन के बारे में विस्तार से...
आचमन का अर्थ : - आचमन का अर्थ होता है जल पीना। प्रार्थना, दर्शन, पूजा, यज्ञ आदि आरंभ करने से पूर्व शुद्धि के लिए मंत्र पढ़ते हुए जल पीना ही आचमन कहलाता है। इससे मन और हृदय की शुद्धि होती है। आचमनी का अर्थ एक छोटा तांबे का लोटा और तांबे की चम्मच को आचमनी कहते हैं। छोटे से तांबे के लोटे में जल भरकर उसमें तुलसी डालकर हमेशा पूजा स्थल पर रखा जाता है। यह जल आचमन का जल कहलाता है। इस जल को तीन बार ग्रहण किया जाता है। माना जाता है कि ऐसे आचमन करने से पूजा का दोगुना फल मिलता है।
आचमन विधि : - वैसे तो आचमन के कई विधान और मंत्र है लेकिन यहां छोटी सी ही विधि प्रस्तुत है। आचमन सदैव उत्तर, ईशान या पूर्व दिशा की ओर मुख करके ही किया जाता है अन्य दिशाओं की ओर मुंह करके कदापि न करें। संध्या के पात्र तांबे का लोटा, तारबन, आचमनी, टूक्कस हाथ धोने के लिए कटोरी, आसन आदि लेकर के गायत्री छंद से इस संध्या की शुरुआत की जाती है। प्रातःकाल की संध्या तारे छिपने के बाद तथा सूर्योदय पूर्व करते हैं।
आचमन के लिए जल इतना लें कि हृदय तक पहुंच जाए। अब हथेलियों को मोड़कर गाय के कान जैसा बना लें कनिष्ठा व अंगुष्ठ को अलग रखें। तत्पश्चात जल लेकर तीन बार निम्न मंत्र का उच्चारण करते हैं:- हुए जल ग्रहण करें-
ॐ केशवाय नम:
ॐ नाराणाय नम:
ॐ माधवाय नम:
ॐ ह्रषीकेशाय नम:, बोलकर ब्रह्मतीर्थ (अंगुष्ठ का मूल भाग) से दो बार होंठ पोंछते हुए हस्त प्रक्षालन करें (हाथ धो लें)। उपरोक्त विधि ना कर सकने की स्थिति में केवल दाहिने कान के स्पर्श मात्र से ही आचमन की विधि की पूर्ण मानी जाती है।
आचमन मुद्रा : - शास्त्रों में कहा गया है कि,,,
त्रिपवेद आपो गोकर्णवरद् हस्तेन त्रिराचमेत्। यानी आचमन के लिए बाएं हाथ की गोकर्ण मुद्रा ही होनी चाहिए तभी यह लाभदायी रहेगा। गोकर्ण मुद्रा बनाने के लिए दर्जनी को मोड़कर अंगूठे से दबा दें। उसके बाद मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका को परस्पर इस प्रकार मोड़ें कि हाथ की आकृति गाय के कान जैसी हो जाए।
भविष्य पुराण के अनुसार जब पूजा की जाए तो आचमन पूरे विधान से करना चाहिए। जो विधिपूर्वक आचमन करता है, वह पवित्र हो जाता है। सत्कर्मों का अधिकारी होता है। आचमन की विधि यह है कि हाथ-पांव धोकर पवित्र स्थान में आसन के ऊपर पूर्व से उत्तर की ओर मुख करके बैठें। दाहिने हाथ को जानु के अंदर रखकर दोनों पैरों को बराबर रखें। फिर जल का आचमन करें।
आचमन करते समय हथेली में 5 तीर्थ बताए गए हैं- 1. देवतीर्थ, 2. पितृतीर्थ, 3. ब्रह्मातीर्थ, 4. प्रजापत्यतीर्थ और 5. सौम्यतीर्थ।
कहा जाता है कि अंगूठे के मूल में ब्रह्मातीर्थ, कनिष्ठा के मूल में प्रजापत्यतीर्थ, अंगुलियों के अग्रभाग में देवतीर्थ, तर्जनी और अंगूठे के बीच पितृतीर्थ और हाथ के मध्य भाग में सौम्यतीर्थ होता है, जो देवकर्म में प्रशस्त माना गया है।
आचमन हमेशा ब्रह्मातीर्थ से करना चाहिए। आचमन करने से पहले अंगुलियां मिलाकर एकाग्रचित्त यानी एकसाथ करके पवित्र जल से बिना शब्द किए 3 बार आचमन करने से महान फल मिलता है। आचमन हमेशा 3 बार करना चाहिए।
आचमन के बारे में स्मृति ग्रंथ में लिखा है कि
प्रथमं यत् पिबति तेन ऋग्वेद प्रीणाति।
यद् द्वितीयं तेन यजुर्वेद प्रीणाति।
यत् तृतीयं तेन सामवेद प्रीणाति।
श्लोक का अर्थ है कि आचमन क्रिया में हर बार एक-एक वेद की तृप्ति प्राप्त होती है। प्रत्येक कर्म के आरंभ में आचमन करने से मन, शरीर एवं कर्म को प्रसन्नता प्राप्त होती है। आचमन करके अनुष्ठान प्रारंभ करने से छींक, डकार और जंभाई आदि नहीं होते हालांकि इस मान्यता के पीछे कोई उद्देश्य नहीं है।
पहले आचमन से ऋग्वेद और द्वितीय से यजुर्वेद और तृतीय से सामवेद की तृप्ति होती है। आचमन करके जलयुक्त दाहिने अंगूठे से मुंह का स्पर्श करने से अथर्ववेद की तृप्ति होती है। आचमन करने के बाद मस्तक को अभिषेक करने से भगवान शंकर प्रसन्न होते हैं। दोनों आंखों के स्पर्श से सूर्य, नासिका के स्पर्श से वायु और कानों के स्पर्श से सभी ग्रंथियां तृप्त होती हैं। माना जाता है कि ऐसे आचमन करने से पूजा का दोगुना फल मिलता है।
"शौच ईपसु: सर्वदा आचामेद एकान्ते प्राग उदड़्ग मुख:" (मनुस्मृति)
अर्थात जो पवित्रता की कामना रखता है उसे एकान्त में आचमन अवश्य करना चाहिए। 'आचमन' कर्मकांड की सबसे जरूरी विधि मानी जाती है। वास्तव में आचमन केवल कोई प्रक्रिया नहीं है। यह हमारी बाहरी और भीतरी शुद्धता का प्रतीक है।
“एवं स ब्राह्मणों नित्यमुस्पर्शनमाचरेत्।
ब्रह्मादिस्तम्बपर्यंन्तं जगत् स परितर्पयेत्॥”
प्रत्येक कार्य में आचमन का विधान है। आचमन से हम न केवल अपनी शुद्धि करते हैं अपितु ब्रह्मा से लेकर तृण तक को तृप्त कर देते हैं। जब हम हाथ में जल लेकर उसका आचमन करते हैं तो वह हमारे मुंह से गले की ओर जाता है, यह पानी इतना थोड़ा होता है कि सीधे आंतों तक नहीं पहुंचता।
हमारे हृदय के पास स्थित ज्ञान चक्र तक ही पहुंच पाता है और फिर इसकी गति धीमी पड़ जाती है। यह इस बात का प्रतीक है कि हम वचन और विचार दोनों से शुद्ध हो गए हैं तथा हमारी मन:स्थिति पूजा के लायक हो गई है। आचमन में तांबे के विशेष पात्र से हथेली में जल लेकर ग्रहण किया जाता है। उसके बाद खुद पर जल छिड़क कर शुद्ध किया जाता है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि- नींद से जागने के बाद, भूख लगने पर, भोजन करने के बाद, छींक आने पर, असत्य भाषण होने पर, पानी पीने के बाद, और अध्ययन करने के बाद आचमन जरूर करें।
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