☆ सर्वस्व दान ☆


☆ सर्वस्व दान ☆

एक पुराना मंदिर था। दरारें पड़ी थीं। खूब जोर से वर्षा हुई और हवा चली। मंदिर का बहुत-सा भाग लडख़ड़ा कर गिर पड़ा। उस दिन एक साधु वर्षा में उस मंदिर में आकर ठहरे थे। भाग्य से वह जहां बैठे थे उधर का कोना बच गया। साधु को चोट नहीं लगी। साधु ने सवेरे पास के बाजार में चंदा जमा करना प्रारंभ किया।

उन्होंने सोचा- ‘‘मेरे रहते भगवान का मंदिर गिरा है तो इसे बनवा कर ही तब मुझे कहीं जाना चाहिए।’’

बाजार वालों में श्रद्धा थी। साधु विद्वान थे। उन्होंने घर-घर जाकर चंदा एकत्र किया। मंदिर बन गया। भगवान की मूर्त की बड़े भारी उत्सव के साथ पूजा हुई। भंडारा हुआ। सबने आनंद से भगवान का प्रसाद लिया। भंडारे के दिन शाम को सभा हुई। साधु बाबा दाताओं को धन्यवाद देने के लिए खड़े हुए। उनके हाथ में एक कागज था। उसमें लम्बी सूची थी।

उन्होंने कहा- ‘‘सबसे बड़ा दान एक बुढिय़ा माता ने दिया है। वह स्वयं आकर दे गई थीं।’’

लोगों ने सोचा कि अवश्य किसी बुढिय़ा ने एक-दो लाख रुपए दिए होंगे लेकिन सबको बड़ा आश्चर्य हुआ जब बाबा ने कहा- ‘‘उन्होंने मुझे एक रुपए का सिक्का और थोड़ा-सा आटा दिया है।’’

लोगों ने समझा कि साधु मजाक कर रहे हैं। साधु ने आगे कहा- ‘‘वह लोगों के घर आटा पीस कर अपना काम चलाती हैं। यह एक रुपया वह कई महीने में एकत्र कर पाई थीं। यही उनकी सारी पूंजी थी। मैं सर्वस्व दान करने वाली उन श्रद्धालु माता को प्रणाम करता हूं।’’

लोगों ने मस्तक झुका लिए। सचमुच बुढिय़ा का मन से दिया हुआ यह सर्वस्व दान ही सबसे बड़ा था....

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