!! श्रृंगार !!


श्रृंगार
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प्रीतम मैंने
किये हैं आज
सोलह श्रृंगार !!
बिन्दिया में
हो गया
रतनार
तुम्हारा प्यार !!
छबि मढ़ दी
अंजन परिधि में
मनभावन तुम्हारी !!
सुर्ख चूड़ियों
की खन- खन में
खनकता प्यार !!
कभी लहराता
आँचल संग
हवाओं में
सर सर स्वर
मादकता भर
गीतों में ढल जाता !!
पायल घुँघरू
की रुण -झुण !
कभी वेणी में
महकता !!
मुस्कुराता
अधरों पर !
सज जाता आकर
अलकों के रूप में,
कभी कपोलों पर !
आलता में आल्हादित
इठलाता
होता उपसंहार !!!!
और श्रृंगार
किया है आत्मा का
जो प्रेम की पराकाष्ठा
से ही पूर्ण है !!!

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