महान भक्त तिक्ष्ण
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दक्षिण के जंगलों में सांग्रीला नाम का एक कबीला था जिसमें भील जाति के शिकारी लोग रहते थे । इस कबीले का सरदार नाग नाम का भील था जो अपने नाम के अनुसार खूंखार और शक्तिशाली था । धनुर्विद्या में प्रवीण नाग अपने बाणों पर विष लगा कर रखता था ।
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अपने शत्रु की हत्या करने में उसे देर नहीं लगती थी । नाग की पत्नी का नाम तत्ता था । तत्ता भी एक विशालकाय डरावनी औरत थी जिसके गले में सिंह के दांतों की माला पड़ी रहती थी । दोनों पति-पत्नी आस-पास के जंगलों के कबीलों में खतरनाक माने जाते थे ।
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बहुत दिनों की प्रतीक्षा के बाद तत्ता ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम तिष्ण रखा गया । नवजात शिशु जन्म के समय आठ किलो वजन का था । इसलिए उसका यही नाम उचित था । तिष्ण को वहा की भाषा में कहा जाता है भारी ।
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तिष्ण का पालन-पोषण होता रहा और वह सोलह वर्ष की आयु तक तो पर्वताकाय शरीर का स्वामी हो गया । अस्त्र-शस्त्र चलाने में वह पिता से भी कई कदम आगे था । कई बार तिष्ण ने निहत्थे ही जंगली सूअर का शिकार किया । उसकी शारीरिक शक्ति असीम थी ।
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नाग अपने पुत्र को मदमस्त गज की भांति झूमता देखता तो गर्व से उसका सीना चौड़ा हो जाता । नाग वृद्ध हो चला था । उसने तिष्ण को ही कबीले का सरदार बना दिया । नियमानुसार तिष्ण सरदार बनने के पहले दिन आखेट को निकला । तिष्ण जिधर से भी गुजरता जंगली पशुओं की लाशें गिराता जाता ।
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उसके दो नौकर नाड़ और काड़ उन्हें उठाकर एक स्थान पर एकत्र करते रहे । तिष्ण ने बहुत सारा मास एकत्र कर दिया तो उसे भूख लगी । भूख मिटाने को मांस तो बहुत था परंतु पानी नहीं था । तभी उसके दोनों अनुचर वहां आ गए ।
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अब भूख लग रही है । दिशा भ्रम भी हो गया लगता है । क्या कहीं पानी मिल सकता है ? चलकर भूख शांत की जाए । तिखा ने कहा । हां वह विशाल शाल का पेड़ देख रहे हो उसके बाद की पहाड़ी के पीछे सुवर्णा नदी बहती है । उसका पानी बहुत शीतल भी है । नाड़ ने बताया ।
वह पहाड़ी भी बहुत रमणीक है । उस पर एक मंदिर है जिसमें भगवान जटा जूटधारी की मूर्ति है । आप उनकी पूजा कर सकते हैं । काड़ भी बोला ।
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यह भगवान क्या होता है ? तिष्ण ने पूछा । काड़ वृद्धावस्था की तरफ अग्रसर था । सुदूर जंगलों में आखेट के लिए भ्रमण कर चुका था और कई साधु संन्यासियों की संगत में रह चुका था । उसे थोड़ा-बहुत ज्ञान था ।
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यह पेड़-पौधे जीव-जन्तु चर-अचर जिसने बनाए हैं वह भगवान है । काड़ ने अपनी ज्ञान-सामर्थ्य के अनुसार बताया: यह हवा कहां से आती है ? जल कहां से आता है ? सब भगवान की कृपा है । तिखा का किशोर मन उस नई जानकारी पर उत्सुक हो उठा । उसने काड़ से भगवान के बारे में और भी पूछा ।
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यह भगवान कहा रहता है ? मैं ऐसे व्यक्ति से मिलना चाहूंगा ।
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वह तो कण-कण में व्याप्त है । इन फूल-पत्तियों में भी है परंतु उससे मिलने के लिए उसकी भक्ति करनी पड़ती है । पूजा करनी पड़ती है ।
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मैं करूंगा । तिष्ण दृढ़ स्वर में बोला: मैं ऐसे व्यक्ति से मिलने के लिए कुछ भी कर सकता हूं जो बिना कुछ लिए इतना सब कुछ देता है ।
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तब तुम मंदिर में चलकर पूजा करो । तिष्ण के मन में प्रभु मिलन का बीज अंकुरित हो गया । उसके हृदय में भगवान की कृतज्ञता के लिए स्वाभाविक प्रेम उमड़ आया था । तीनों पहाड़ी पर चढ़ने लगे । ज्यों-ज्यों तिखा पहाड़ी पर चढ़ रहा था उसकी भूख-प्यास लुप्त हो रही थी ।
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अंतर्मन में एक अवर्णनीय उत्सुकता आनद भर रही थी । वे पहाड़ी के शिखर पर पहुंचकर मंदिर के सामने पहुंचे । महादेव की मूर्ति देखते ही तिष्ण अपनी सुध-बुध भूल गया और भाव-विह्वल होकर मूर्ति को अपने आलिंगन में बांध कर रोने लगा ।
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हे संसार को जल वायु और प्राण देने वाले! वह भावविभोर होकर बोला: तुम इतने महान होकर भी इस जंगल में अकेले रहते हो ! मूर्ति के सिर पर कुछ पुष्प रखे थे ।
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तिखा ने उन्हें उठाकर फेंक दिया । यह किसकी दुष्टता है । मेरे स्वामी के सिर पर यह फूल किसने रखे ?
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मैं अक्सर एक व्यक्ति को देखता हूं । नाड़ बोला- वह प्रात काल आता है और इनके सिर पर शीतल जल डालकर फूल-पत्तियां रखकर लम्बा लेट जाता है । साथ ही कुछ बड़बड़ाता रहता है ।
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जरूर वह कोई अघोरी है जो मेरे स्वामी को निमित्त बनाकर किसी स्वार्थ सिद्धि में लगा रहता है । तिष्ण बोला: इन्हें भोजन भी नहीं कराता होगा । मैं प्रतिदिन इन्हें ताजा मांस का भोजन कराऊगा ।
वह भोजन लेने चल पड़ा परतु मंदिर से जाने को उसका मन नहीं करता था । वह बार-बार लौटता और मूर्ति से लिपट जाता । भगवान ! मन तो जाने का नहीं करता परंतु तुम्हें भूख लग रही है इसलिए जाता हूं ।
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तिखा वहां से निकलकर पहाड़ी से नीचे उतर गया । नाड़ तो हतबुद्धि रह गया जबकि काड् तिष्ण की अवस्था समझ रहा था ।
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हमारा सर्वनाश हो गया । नाड़ बोला: स्वामी पागल हो गए । सब तुम्हारे कारण हुआ है । अब बड़े स्वामी तुझे भूनकर खा जाएंगे । काड़ ने कुछ न कहा । वह उस निर्बुद्धि को क्या समझाता ।
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तिष्ण वापस लौटा तो उसके दोनों हाथों में मांस था । उसने आते ही मांस भूना और उसे कई पत्तों पर रखा फिर प्रत्येक पत्ते का मास चखा कि कहीं कच्चा तो नहीं रह गया । तत्पश्चात संतुष्ट होकर भगवान को समर्पित किया ।
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यह तो बिल्कुल ही पगला गया है । इतना सुगंधित मांस पत्थर को भेंट कर रहा है । हमारी भूख का इसे खयाल ही नहीं । नाड़ अप्रसन्न होकर बोला ।
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तिष्ण मूर्ति के सामने बैठा भोजन करने का आग्रह कर रहा था । स्वामी ! शाम होने को आई । अब घर चलो । प्रतीक्षा हो रही होगी । नाड़ बोला ।
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मैं नहीं जा सकता । रात्रि का समय जगंली जीवों के घूमने का है । मैं भगवान को अकेला नहीं छोड़ सकता । तुम जाओ ।
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काड़ अब अपनी मृत्यु निश्चित जान । नाड़ क्रोध से बोला: तेरे कारण स्वामी ऐसी बातें करने लगे । मैं बड़े स्वामी से कहकर तुझे दंड दिलवाऊंगा । अभी जाता हूं । तू यहीं रुक इस पागल के पास ।
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नाड़ पहाड़ी से उतर गया । काड़ भी विचार करने लगा कि निर्बुद्धि नाड़ जब नाग को बताएगा तो वह महाशठ तनिक भी विचार किए बिना उसे मृत्युदंड दे देगा । अत: उसका वहा से भागना ही श्रेयस्कर था ।
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तिष्ण अकेला ही मंदिर में रह गया । रात्रि होने पर वह मंदिर के द्वार पर धनुष-बाण लेकर भगवान की रक्षा में जुट गया ।
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सारी रात जागते हुए उसने पहरा दिया । उसका प्रेम अनंतता की ओर जा रहा था । प्रात: काल होने पर तिष्ण अपने भगवान के लिए ताजा मांस लेने पहाड़ी से उतर गया । उसके जाने के कुछ क्षण बाद ही वह पुजारी आ गया जो रोज मंदिर में पूजा-अर्चना करता था ।
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मंदिर में मांस देखकर वह हतप्रभ रह गया । हे भगवान ! यह भ्रष्टता किसने की । किसी जंगली शिकारी ने मंदिर अपवित्र कर दिया । उस शिकारी को कोसते पुजारी ने जैसे-तैसे मंदिर साफ किया और स्वयं नदी में स्नान करके आया ।
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तत्पश्चात अपने महामंत्रों से स्तुति की और वापस अपने घर लौट गया । तिष्ण वापस लौटा । उसने कई जानवरों का मांस इकट्ठा करके भूना था और उसमें शहद निचोड़कर लाया था । मंदिर में फिर वही फूल-पत्ते देखकर वह क्रोधित हो गया ।
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भगवान के आचमन के लिए वह मुह में पानी भरकर लाया था । इस कारण बोल नहीं सकता था । उसने अपने पैरों से फूल-पत्ते हटाए फिर मुह का पानी मूर्ति पर उड़ेल दिया । भगवान ! मेरी अनुपस्थिति में वह दुष्ट अघोरी आया था । किसी दिन मुझे मिला तो दंडित करूंगा उसे ।
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लीजिए आप भोजन कीजिए । आज मैं ताजा मास में शहद भी निचोड़कर लाया हूं । तिष्ण बोला । इस तरह पांच दिन तक तिष्ण अपने भगवान के भोजन में दिन और रक्षक बनकर रात गुजारता रहा । उसे स्वयं तो खाने-पीने की सुध नहीं थी ।
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तिष्ण के माता-पिता उसे अन्यत्र डूंडने निकल गए क्योंकि जब वह वहा मंदिर पर आए तो वहां कोई न मिला । तब नाडू ने कहा कि अवश्य वह काड् उसे बहकाकर कहीं ले गया होगा ।
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उधर पुजारी महोदय रोज मंदिर में ऐसा हाल देखते तो उस भ्रष्टता पर विलाप करते । मंदिर साफ करते पूजा करते और लौट जाते ।
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यह भगवान की ही लीला थी कि कभी पुजारी और तिष्ण का सामना नहीं हुआ था। सभवत: तिष्ण की उग्र प्रवृत्ति से पुजारी का कोई अहित हो जाता । .
जब पुजारी उस भ्रष्टाचार पर तिष्ण को गालियां देने लगा तो एक रात स्वप्न में उसे देवाधिदेव महादेव ने दर्शन दिए ।
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हे मेरे भक्त ! तुम जिसे अपशब्द कह रहे हो उसे नहीं जानते । वह मेरा परम भक्त है। अपनी सामर्थ्य के अनुसार वह मुझे प्रसन्न करने की कोशिश करता है ।
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उसके प्रेम में कहीं भी कोई इच्छा नहीं है । मुझे वह बहुत प्रिय है । उसकी वंदन-विधि तुम्हें अवश्य बुरी लगती है परंतु मुझे नहीं ।
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मांस उसका भोजन है जो उसने अपना सर्वस्व जानकर मुझे समर्पित कर दिया । जब वह मुझे अपनी भाषा में भोजन का आग्रह करता है तो मुझे उसका आग्रह तुम्हारे जाप और वेदमंत्रों से भी श्रेष्ठ लगता है । यदि तुम उसकी भक्ति देखना चाहते हो तो कल कहीं छुपकर देखना ।
.पुजारी जी हड़बड़ाकर जागे । कहीं कुछ नहीं था परतु स्वयं प्रभु का आदेश हुआ तो वह प्रात -काल ही मंदिर के समीप छुपकर तिष्ण के कृत्य को देखने लगे ।
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तिष्ण उस समय भगवान के लिए भोजन लेने गया था । वह वापस लौट रहा था तो रास्ते में उसे ठोकर लगी और मास पृथ्वी पर गिर गया ।
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यह अपशकुन है । कहीं मेरे भगवान को तो कुछ नहीं हुआ ? तिष्ण ने सोचा और दौड़ता हुआ पहाड़ी चढ़ने लगा । पुजारी उस विशालकाय आकृति को देखकर सहम गए । तिष्ण मंदिर में पहुचा तो उसने मूर्ति की बाईं आख से रक्त टपकता देखा । भोजन उसके हाथ से छूट गया ।
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हाय, मेरे भगवान को क्या हुआ ? किस पापी ने मेरे स्वामी को घायल किया है ? तिष्ण बैठकर रोने लगा: यदि वह दुष्ट मुझे मिला तो मैं उसका वध कर दूगा । तिखा ने भगवान की आख से रक्त पोंछा परतु रक्तधारा निरंतर बहती रही ।
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हाय मैं क्या करूं ? क्या उपचार करूं , वह जोर-जोर से रोने लगा : तुम्हें तो बहुत कष्ट हो रहा होगा भगवान । पहले मैं उस दुष्ट को दूढ़ता हूं जिसने यह दुष्ट कार्य किया है ।
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तिष्ण मंदिर से बाहर निकल आया । पुजारी जी के पर कांप उठे । कहीं उसे दिखाई पड गए तो जीवित न छोड़ेगा । हे भोलेनाथ ! रक्षा करो । परंतु सर्वेश्वर क्या तिष्ण के स्वभाव से अनभिज्ञ थे ?
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उन्हीं की लीला थी कि साफ दिखाई पड़ रहा पुजारी तिष्ण को दिखाई न दे रहा था । जब उसे कोई न दिखाई दिया तो वापस मूर्ति के समीप जाकर बैठ गया ।
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भगवान ! मैं जड़ी-बूटियां लेकर आता हूं । मैं यह तो नहीं जानता कि किस जड़ी से आपको लाभ होगा परंतु जाता हूं । अभी लौटता हूं ।
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तिष्ण पहाड़ी से नीचे उतर गया और जब लौटा तो सिर पर जगंली जड़ी-बूटियों का बड़ा-सा गट्ठर था । मंदिर आकर उसने एक-एक जड़ी भगवान की आख में निचोड़ी परंतु रक्तस्राव बंद न हुआ ।
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अब क्या उपाय करूं ? तिष्ण विचलित हो गया । तब उसे स्मरण आया कि शिकारी लोग घाव पर मनुष्य का मांस लगाते थे और घाव अच्छा हो जाता था । यह भी करके देखता हूं । भगवान की बाईं आँख नष्ट हुई है अत: मैं अपनी बाईं आँख निकालकर ही घाव पर रखता हूं संभव है लाभ हो जाए ।
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एक नुकीले तीर से उस भक्त ने अपनी बाईं आँख निकाली । स्वयं की आँख से रक्तधारा फूट पड़ी परंतु चिंता नहीं । आँख हथेली पर रखकर भगवान की आँख पर रखी और दबाई । तत्काल भगवान की आँख से खून बहना बंद हो गया ।
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तिष्ण प्रसन्नता से किलकारी मार उठा । नाचने लगा । मेरे भगवान अच्छे हो गए । परंतु यह क्या ? अब भगवान की दाहिनी आँख से रक्तस्राव होने लगा । तिष्ण स्तब्ध रह गया । चिंता मत करो प्रभु ! उपचार तो मुझे मिल गया है । अभी उपचार करता हूं ।
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तिष्ण ने फिर तीर उठाया और दाहिनी आँख निकालने को उत्सुक हुआ तभी मूर्ति से साक्षात श्री देवाधिदेव प्रकट हुए और तिष्ण का हाथ पकड़ लिया ।
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देवलोक में भी तिष्ण की ऐसी भक्ति पर उसका यशोगान होने लगा था ठहरो वत्स ! तेरा प्रेम और त्याग तो बड़े-बड़े तपस्वियों की साधना से भी उच्च कोटि का है ।
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निस्वार्थ प्रेमवश मुझे अपना दास बना लिया है । तेरी कोई इच्छा तेरे हृदय में भी नहीं । अत : मैं तुझे समस्त दिव्य ज्ञानों का वरदान देता हूं । तेरे हृदय में मेरे प्रति जितने भी प्रश्न हैं सबका उत्तर तुझे स्वयं मिल जाएगा । कैलाशपति ने भाव-विह्वल होकर कहा ।
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तिष्ण को उसी क्षण आत्मज्ञान हो गया । उसके दिव्य ज्ञानचक्षु वास्तविकता को चलचित्र की तरह देख रहे थे । वह भाव में डूब गया और अपने आराध्य के चरणों में नतमस्तक हो गया ।
दूर छुपा पुजारी उस अविश्वसनीय दृश्य का साक्षी बना और उसने ऐसे भक्त वत्सल भगवान और महान भक्त का एक साथ साक्षात्कार करके अपने जीवन को कृतार्थ किया।
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दक्षिण के जंगलों में सांग्रीला नाम का एक कबीला था जिसमें भील जाति के शिकारी लोग रहते थे । इस कबीले का सरदार नाग नाम का भील था जो अपने नाम के अनुसार खूंखार और शक्तिशाली था । धनुर्विद्या में प्रवीण नाग अपने बाणों पर विष लगा कर रखता था ।
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अपने शत्रु की हत्या करने में उसे देर नहीं लगती थी । नाग की पत्नी का नाम तत्ता था । तत्ता भी एक विशालकाय डरावनी औरत थी जिसके गले में सिंह के दांतों की माला पड़ी रहती थी । दोनों पति-पत्नी आस-पास के जंगलों के कबीलों में खतरनाक माने जाते थे ।
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बहुत दिनों की प्रतीक्षा के बाद तत्ता ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम तिष्ण रखा गया । नवजात शिशु जन्म के समय आठ किलो वजन का था । इसलिए उसका यही नाम उचित था । तिष्ण को वहा की भाषा में कहा जाता है भारी ।
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तिष्ण का पालन-पोषण होता रहा और वह सोलह वर्ष की आयु तक तो पर्वताकाय शरीर का स्वामी हो गया । अस्त्र-शस्त्र चलाने में वह पिता से भी कई कदम आगे था । कई बार तिष्ण ने निहत्थे ही जंगली सूअर का शिकार किया । उसकी शारीरिक शक्ति असीम थी ।
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नाग अपने पुत्र को मदमस्त गज की भांति झूमता देखता तो गर्व से उसका सीना चौड़ा हो जाता । नाग वृद्ध हो चला था । उसने तिष्ण को ही कबीले का सरदार बना दिया । नियमानुसार तिष्ण सरदार बनने के पहले दिन आखेट को निकला । तिष्ण जिधर से भी गुजरता जंगली पशुओं की लाशें गिराता जाता ।
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उसके दो नौकर नाड़ और काड़ उन्हें उठाकर एक स्थान पर एकत्र करते रहे । तिष्ण ने बहुत सारा मास एकत्र कर दिया तो उसे भूख लगी । भूख मिटाने को मांस तो बहुत था परंतु पानी नहीं था । तभी उसके दोनों अनुचर वहां आ गए ।
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अब भूख लग रही है । दिशा भ्रम भी हो गया लगता है । क्या कहीं पानी मिल सकता है ? चलकर भूख शांत की जाए । तिखा ने कहा । हां वह विशाल शाल का पेड़ देख रहे हो उसके बाद की पहाड़ी के पीछे सुवर्णा नदी बहती है । उसका पानी बहुत शीतल भी है । नाड़ ने बताया ।
वह पहाड़ी भी बहुत रमणीक है । उस पर एक मंदिर है जिसमें भगवान जटा जूटधारी की मूर्ति है । आप उनकी पूजा कर सकते हैं । काड़ भी बोला ।
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यह भगवान क्या होता है ? तिष्ण ने पूछा । काड़ वृद्धावस्था की तरफ अग्रसर था । सुदूर जंगलों में आखेट के लिए भ्रमण कर चुका था और कई साधु संन्यासियों की संगत में रह चुका था । उसे थोड़ा-बहुत ज्ञान था ।
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यह पेड़-पौधे जीव-जन्तु चर-अचर जिसने बनाए हैं वह भगवान है । काड़ ने अपनी ज्ञान-सामर्थ्य के अनुसार बताया: यह हवा कहां से आती है ? जल कहां से आता है ? सब भगवान की कृपा है । तिखा का किशोर मन उस नई जानकारी पर उत्सुक हो उठा । उसने काड़ से भगवान के बारे में और भी पूछा ।
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यह भगवान कहा रहता है ? मैं ऐसे व्यक्ति से मिलना चाहूंगा ।
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वह तो कण-कण में व्याप्त है । इन फूल-पत्तियों में भी है परंतु उससे मिलने के लिए उसकी भक्ति करनी पड़ती है । पूजा करनी पड़ती है ।
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मैं करूंगा । तिष्ण दृढ़ स्वर में बोला: मैं ऐसे व्यक्ति से मिलने के लिए कुछ भी कर सकता हूं जो बिना कुछ लिए इतना सब कुछ देता है ।
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तब तुम मंदिर में चलकर पूजा करो । तिष्ण के मन में प्रभु मिलन का बीज अंकुरित हो गया । उसके हृदय में भगवान की कृतज्ञता के लिए स्वाभाविक प्रेम उमड़ आया था । तीनों पहाड़ी पर चढ़ने लगे । ज्यों-ज्यों तिखा पहाड़ी पर चढ़ रहा था उसकी भूख-प्यास लुप्त हो रही थी ।
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अंतर्मन में एक अवर्णनीय उत्सुकता आनद भर रही थी । वे पहाड़ी के शिखर पर पहुंचकर मंदिर के सामने पहुंचे । महादेव की मूर्ति देखते ही तिष्ण अपनी सुध-बुध भूल गया और भाव-विह्वल होकर मूर्ति को अपने आलिंगन में बांध कर रोने लगा ।
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हे संसार को जल वायु और प्राण देने वाले! वह भावविभोर होकर बोला: तुम इतने महान होकर भी इस जंगल में अकेले रहते हो ! मूर्ति के सिर पर कुछ पुष्प रखे थे ।
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तिखा ने उन्हें उठाकर फेंक दिया । यह किसकी दुष्टता है । मेरे स्वामी के सिर पर यह फूल किसने रखे ?
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मैं अक्सर एक व्यक्ति को देखता हूं । नाड़ बोला- वह प्रात काल आता है और इनके सिर पर शीतल जल डालकर फूल-पत्तियां रखकर लम्बा लेट जाता है । साथ ही कुछ बड़बड़ाता रहता है ।
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जरूर वह कोई अघोरी है जो मेरे स्वामी को निमित्त बनाकर किसी स्वार्थ सिद्धि में लगा रहता है । तिष्ण बोला: इन्हें भोजन भी नहीं कराता होगा । मैं प्रतिदिन इन्हें ताजा मांस का भोजन कराऊगा ।
वह भोजन लेने चल पड़ा परतु मंदिर से जाने को उसका मन नहीं करता था । वह बार-बार लौटता और मूर्ति से लिपट जाता । भगवान ! मन तो जाने का नहीं करता परंतु तुम्हें भूख लग रही है इसलिए जाता हूं ।
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तिखा वहां से निकलकर पहाड़ी से नीचे उतर गया । नाड़ तो हतबुद्धि रह गया जबकि काड् तिष्ण की अवस्था समझ रहा था ।
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हमारा सर्वनाश हो गया । नाड़ बोला: स्वामी पागल हो गए । सब तुम्हारे कारण हुआ है । अब बड़े स्वामी तुझे भूनकर खा जाएंगे । काड़ ने कुछ न कहा । वह उस निर्बुद्धि को क्या समझाता ।
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तिष्ण वापस लौटा तो उसके दोनों हाथों में मांस था । उसने आते ही मांस भूना और उसे कई पत्तों पर रखा फिर प्रत्येक पत्ते का मास चखा कि कहीं कच्चा तो नहीं रह गया । तत्पश्चात संतुष्ट होकर भगवान को समर्पित किया ।
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यह तो बिल्कुल ही पगला गया है । इतना सुगंधित मांस पत्थर को भेंट कर रहा है । हमारी भूख का इसे खयाल ही नहीं । नाड़ अप्रसन्न होकर बोला ।
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तिष्ण मूर्ति के सामने बैठा भोजन करने का आग्रह कर रहा था । स्वामी ! शाम होने को आई । अब घर चलो । प्रतीक्षा हो रही होगी । नाड़ बोला ।
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मैं नहीं जा सकता । रात्रि का समय जगंली जीवों के घूमने का है । मैं भगवान को अकेला नहीं छोड़ सकता । तुम जाओ ।
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काड़ अब अपनी मृत्यु निश्चित जान । नाड़ क्रोध से बोला: तेरे कारण स्वामी ऐसी बातें करने लगे । मैं बड़े स्वामी से कहकर तुझे दंड दिलवाऊंगा । अभी जाता हूं । तू यहीं रुक इस पागल के पास ।
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नाड़ पहाड़ी से उतर गया । काड़ भी विचार करने लगा कि निर्बुद्धि नाड़ जब नाग को बताएगा तो वह महाशठ तनिक भी विचार किए बिना उसे मृत्युदंड दे देगा । अत: उसका वहा से भागना ही श्रेयस्कर था ।
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तिष्ण अकेला ही मंदिर में रह गया । रात्रि होने पर वह मंदिर के द्वार पर धनुष-बाण लेकर भगवान की रक्षा में जुट गया ।
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सारी रात जागते हुए उसने पहरा दिया । उसका प्रेम अनंतता की ओर जा रहा था । प्रात: काल होने पर तिष्ण अपने भगवान के लिए ताजा मांस लेने पहाड़ी से उतर गया । उसके जाने के कुछ क्षण बाद ही वह पुजारी आ गया जो रोज मंदिर में पूजा-अर्चना करता था ।
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मंदिर में मांस देखकर वह हतप्रभ रह गया । हे भगवान ! यह भ्रष्टता किसने की । किसी जंगली शिकारी ने मंदिर अपवित्र कर दिया । उस शिकारी को कोसते पुजारी ने जैसे-तैसे मंदिर साफ किया और स्वयं नदी में स्नान करके आया ।
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तत्पश्चात अपने महामंत्रों से स्तुति की और वापस अपने घर लौट गया । तिष्ण वापस लौटा । उसने कई जानवरों का मांस इकट्ठा करके भूना था और उसमें शहद निचोड़कर लाया था । मंदिर में फिर वही फूल-पत्ते देखकर वह क्रोधित हो गया ।
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भगवान के आचमन के लिए वह मुह में पानी भरकर लाया था । इस कारण बोल नहीं सकता था । उसने अपने पैरों से फूल-पत्ते हटाए फिर मुह का पानी मूर्ति पर उड़ेल दिया । भगवान ! मेरी अनुपस्थिति में वह दुष्ट अघोरी आया था । किसी दिन मुझे मिला तो दंडित करूंगा उसे ।
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लीजिए आप भोजन कीजिए । आज मैं ताजा मास में शहद भी निचोड़कर लाया हूं । तिष्ण बोला । इस तरह पांच दिन तक तिष्ण अपने भगवान के भोजन में दिन और रक्षक बनकर रात गुजारता रहा । उसे स्वयं तो खाने-पीने की सुध नहीं थी ।
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तिष्ण के माता-पिता उसे अन्यत्र डूंडने निकल गए क्योंकि जब वह वहा मंदिर पर आए तो वहां कोई न मिला । तब नाडू ने कहा कि अवश्य वह काड् उसे बहकाकर कहीं ले गया होगा ।
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उधर पुजारी महोदय रोज मंदिर में ऐसा हाल देखते तो उस भ्रष्टता पर विलाप करते । मंदिर साफ करते पूजा करते और लौट जाते ।
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यह भगवान की ही लीला थी कि कभी पुजारी और तिष्ण का सामना नहीं हुआ था। सभवत: तिष्ण की उग्र प्रवृत्ति से पुजारी का कोई अहित हो जाता । .
जब पुजारी उस भ्रष्टाचार पर तिष्ण को गालियां देने लगा तो एक रात स्वप्न में उसे देवाधिदेव महादेव ने दर्शन दिए ।
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हे मेरे भक्त ! तुम जिसे अपशब्द कह रहे हो उसे नहीं जानते । वह मेरा परम भक्त है। अपनी सामर्थ्य के अनुसार वह मुझे प्रसन्न करने की कोशिश करता है ।
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उसके प्रेम में कहीं भी कोई इच्छा नहीं है । मुझे वह बहुत प्रिय है । उसकी वंदन-विधि तुम्हें अवश्य बुरी लगती है परंतु मुझे नहीं ।
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मांस उसका भोजन है जो उसने अपना सर्वस्व जानकर मुझे समर्पित कर दिया । जब वह मुझे अपनी भाषा में भोजन का आग्रह करता है तो मुझे उसका आग्रह तुम्हारे जाप और वेदमंत्रों से भी श्रेष्ठ लगता है । यदि तुम उसकी भक्ति देखना चाहते हो तो कल कहीं छुपकर देखना ।
.पुजारी जी हड़बड़ाकर जागे । कहीं कुछ नहीं था परतु स्वयं प्रभु का आदेश हुआ तो वह प्रात -काल ही मंदिर के समीप छुपकर तिष्ण के कृत्य को देखने लगे ।
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तिष्ण उस समय भगवान के लिए भोजन लेने गया था । वह वापस लौट रहा था तो रास्ते में उसे ठोकर लगी और मास पृथ्वी पर गिर गया ।
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यह अपशकुन है । कहीं मेरे भगवान को तो कुछ नहीं हुआ ? तिष्ण ने सोचा और दौड़ता हुआ पहाड़ी चढ़ने लगा । पुजारी उस विशालकाय आकृति को देखकर सहम गए । तिष्ण मंदिर में पहुचा तो उसने मूर्ति की बाईं आख से रक्त टपकता देखा । भोजन उसके हाथ से छूट गया ।
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हाय, मेरे भगवान को क्या हुआ ? किस पापी ने मेरे स्वामी को घायल किया है ? तिष्ण बैठकर रोने लगा: यदि वह दुष्ट मुझे मिला तो मैं उसका वध कर दूगा । तिखा ने भगवान की आख से रक्त पोंछा परतु रक्तधारा निरंतर बहती रही ।
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हाय मैं क्या करूं ? क्या उपचार करूं , वह जोर-जोर से रोने लगा : तुम्हें तो बहुत कष्ट हो रहा होगा भगवान । पहले मैं उस दुष्ट को दूढ़ता हूं जिसने यह दुष्ट कार्य किया है ।
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तिष्ण मंदिर से बाहर निकल आया । पुजारी जी के पर कांप उठे । कहीं उसे दिखाई पड गए तो जीवित न छोड़ेगा । हे भोलेनाथ ! रक्षा करो । परंतु सर्वेश्वर क्या तिष्ण के स्वभाव से अनभिज्ञ थे ?
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उन्हीं की लीला थी कि साफ दिखाई पड़ रहा पुजारी तिष्ण को दिखाई न दे रहा था । जब उसे कोई न दिखाई दिया तो वापस मूर्ति के समीप जाकर बैठ गया ।
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भगवान ! मैं जड़ी-बूटियां लेकर आता हूं । मैं यह तो नहीं जानता कि किस जड़ी से आपको लाभ होगा परंतु जाता हूं । अभी लौटता हूं ।
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तिष्ण पहाड़ी से नीचे उतर गया और जब लौटा तो सिर पर जगंली जड़ी-बूटियों का बड़ा-सा गट्ठर था । मंदिर आकर उसने एक-एक जड़ी भगवान की आख में निचोड़ी परंतु रक्तस्राव बंद न हुआ ।
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अब क्या उपाय करूं ? तिष्ण विचलित हो गया । तब उसे स्मरण आया कि शिकारी लोग घाव पर मनुष्य का मांस लगाते थे और घाव अच्छा हो जाता था । यह भी करके देखता हूं । भगवान की बाईं आँख नष्ट हुई है अत: मैं अपनी बाईं आँख निकालकर ही घाव पर रखता हूं संभव है लाभ हो जाए ।
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एक नुकीले तीर से उस भक्त ने अपनी बाईं आँख निकाली । स्वयं की आँख से रक्तधारा फूट पड़ी परंतु चिंता नहीं । आँख हथेली पर रखकर भगवान की आँख पर रखी और दबाई । तत्काल भगवान की आँख से खून बहना बंद हो गया ।
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तिष्ण प्रसन्नता से किलकारी मार उठा । नाचने लगा । मेरे भगवान अच्छे हो गए । परंतु यह क्या ? अब भगवान की दाहिनी आँख से रक्तस्राव होने लगा । तिष्ण स्तब्ध रह गया । चिंता मत करो प्रभु ! उपचार तो मुझे मिल गया है । अभी उपचार करता हूं ।
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तिष्ण ने फिर तीर उठाया और दाहिनी आँख निकालने को उत्सुक हुआ तभी मूर्ति से साक्षात श्री देवाधिदेव प्रकट हुए और तिष्ण का हाथ पकड़ लिया ।
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देवलोक में भी तिष्ण की ऐसी भक्ति पर उसका यशोगान होने लगा था ठहरो वत्स ! तेरा प्रेम और त्याग तो बड़े-बड़े तपस्वियों की साधना से भी उच्च कोटि का है ।
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निस्वार्थ प्रेमवश मुझे अपना दास बना लिया है । तेरी कोई इच्छा तेरे हृदय में भी नहीं । अत : मैं तुझे समस्त दिव्य ज्ञानों का वरदान देता हूं । तेरे हृदय में मेरे प्रति जितने भी प्रश्न हैं सबका उत्तर तुझे स्वयं मिल जाएगा । कैलाशपति ने भाव-विह्वल होकर कहा ।
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तिष्ण को उसी क्षण आत्मज्ञान हो गया । उसके दिव्य ज्ञानचक्षु वास्तविकता को चलचित्र की तरह देख रहे थे । वह भाव में डूब गया और अपने आराध्य के चरणों में नतमस्तक हो गया ।
दूर छुपा पुजारी उस अविश्वसनीय दृश्य का साक्षी बना और उसने ऐसे भक्त वत्सल भगवान और महान भक्त का एक साथ साक्षात्कार करके अपने जीवन को कृतार्थ किया।
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