आया है सो जायेगा, राजा रंक फकीर
ऐक सिंहासन चढ़ि चले, ऐक बांधे जंजीर।
इस संसार में जो आये हैं वे सभी जायेंगे राजा, गरीब या भिखारी,पर एक सिंहासन पर बैठ कर जायेगा और दूसरा जंजीर में बंध कर जायेगा। धर्मात्मा सिंहासन पर बैठ कर स्वर्ग और पापी जंजीर में बाॅंध कर नरक ले जाया जायेगा।
मित्रो,जो पैदा हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है, यह प्रकृति और परमात्मा का शाश्वत सत्य सिद्धांत है, मनुष्य की जिजीविषा तो अनन्त काल तक रहती है, परन्तु देह के साथ प्राणी मात्र के जीवन की एक सीमा है, आयु बढ़ती है और देह क्षीण होती जाती है, और एक समय ऐसा आता है।
आध्यात्मिक शास्त्रोक्तानुसार कि शरीर के भीतर रहने वाली विभिन्न नामों से जानी जाने वाली चेतना निकल जाती है, एवं मनुष्य को मृत मान कर इसकी देह को भिन्न-भिन्न रस्मों अनुसार पंचतत्व में विलीन कर दिया जाता हैै।
यही नियम वनस्पति जगत में है, लेकिन पेड़-पौधों को मनुष्य की देह की भांति भूमि में गाड़ना या अग्नि में जलाना या पानी में बहा देने जैसा कोई नियम नहीं है, मनुष्य का मरण निश्चित है, इस रहस्य को समझने वाला व्यक्ति अपने एक निश्चितकालीन जीवन को सार्थक करना चाहता है।
संतों, मुनियों, महात्माओं, ज्ञानिजनों, महापुरुषों और सिद्धों ने अपने जीवन के कटु अनुभवों के आधार पर यह बताया है कि मानव को अपने बुद्धिबल, विवेक व अपने अंतस की आवाज के आधार पर ऐसा जीवन जीना व बनाना चाहिये, जिससे यह प्रतीत हो कि सचमुच वह पशुओं से भिन्न है और श्रेष्ठ भी।
यदि वह मनुष्य जन्म पाकर भी पशुवत् जीवन जीता है तो फिर मनुष्य के जीवन को लानत कहा गया है, इसलिए मनुष्य के पास एक ऐसा अवसर होता है कि वह मानवता के कल्याणार्थ कुछ कर सकता है।
पानी केरा बुदबुदा अस मानस की जात।
देखत ही छुप जात है ज्यों तारा प्रभात।
तो फिर व्यक्ति को चाहिए कि इस अल्पकालीन जीवन को सार्थक बनाने के लिए मानवता के कल्याण में लग जायें, मानव को मानवता का त्याग नहीं करना चाहिये, जैसे हम औरों से अपने प्रति व्यवहार चाहते हैं, वैसे ही दूसरों के साथ व्यवहार करना मानवता का धर्म है।
अपने को प्रदत्त कष्ट में जैसी पीड़ा का अनुभव स्वयं को होता है, वैसी ही पीड़ा दूसरों को देने में होती है, एकात्मकता जानकर यह संकल्प लेना चाहिये कि मैं किसी को पीड़ा नहीं दूंगा, धरा पर स्वर्ग की स्थापना करने के भगवान महावीर ने जीओ तथा जीने दो का पाठ पढ़ाया था।
महाभारत काल में दुर्योधन से पांडवों ने केवल पांच ग्राम देने की विनय की थी, दुर्योधन ने सुईं की नोंक के बराबर जमीन भी देने से इनकार कर दिया, युद्ध हुआ और मानवता जीती और अमानवता हारी, जगत में जितने भी व्यक्ति महान हुयें है उन्होंने निश्चित रूप से मानव धर्म का पालन किया है।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- जीवात्मा मानवतायोग्य कर्म करके देवत्व को प्राप्त कर सकता है, महर्षि दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्दजी, महर्षि अरविंद, विनोबा भावे, वीर हटोबा गुरूदेव गणेश पुरीजी, आदि असंख्य महापुरुषों ने मानवता धर्म पर चलकर अपने जीवन उत्सर्ग किए हैं, इसीलिए उन्हें श्रद्धापूर्वक याद किया जाता है।
मानव की सुंदरता उसकी देह से नहीं, बल्कि उसके सुंदर कर्मों से होती है और यह सुंदर कर्म करना सिखाता है मानवता का धर्म, जब मानव से मानवता निकल गई तो फिर आदमी और पशु में कोई अंतर नहीं रह जाता है, क्योंकि आदमी पशुवत् व्यवहार तभी करता है जब वह मानवता खो बैठता है।
राम-रावण युद्ध हुआ, युद्ध में अनेक योद्धाओं सहित स्वयं रावण भी मारा गया, मरी हुई मानवता मानव को भी मार देती है, मानव के समक्ष दो ही तो रास्ते हैं, एक मानवता का और दूसरा दानवता का, मानवता से हटा तो दानवता घर कर लेती है, और मानव यदि मानवता के निकट रहता है तो वह ईश्वर के निकट रहता हुआ ईश्वर जैसा बनकर श्रेष्ठ कर्म करता है।
महावीर स्वामी में मानवता जागी, जीवों पर हो रहे अत्याचार देख कर वे बोले, हे संसार के लोगो, जीव हत्या मत करो, जीवों को भी पीड़ा का वैसा ही अनुभव होता है जैसा तुम्हें होता है, मानव धर्म वसुधैव कुटुंबकम् की स्थापना करके प्रेमपूर्वक जीने की पद्धति सिखाता है।
यह मानवता ही थी कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने हत्यारे जगन्नाथ को क्षमा करते हुए उसे कहीं भाग जाने को कह दिया था, गुरु नानकजी ने कहा है- हक हलाल की रोटी में दूध और बेईमानी से कमाई रोटी में खून टपकता है, मनुष्य का मौलिक और सबसे बड़ा धर्म मानवता ही है।
सज्जनों! जो धर्म वैर सिखाता है, उसे बुद्धिमान लोग धर्म नहीं कहेंगे, वह धर्म होने का कोरा दंभ मात्र हो सकता है, जीवन में ऐसा खोखला जीवन न जी कर मानव को मानवता के कल्याणार्थ ऐसे कर्म करने चाहिये, जिससे चांद-सितारों से जगमग-जगमग नभ की भांति वसुन्धरा भी जगमगा उठे।
जय महादेव!
ओऊम् नमः शिवाय्
ऐक सिंहासन चढ़ि चले, ऐक बांधे जंजीर।
इस संसार में जो आये हैं वे सभी जायेंगे राजा, गरीब या भिखारी,पर एक सिंहासन पर बैठ कर जायेगा और दूसरा जंजीर में बंध कर जायेगा। धर्मात्मा सिंहासन पर बैठ कर स्वर्ग और पापी जंजीर में बाॅंध कर नरक ले जाया जायेगा।
मित्रो,जो पैदा हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है, यह प्रकृति और परमात्मा का शाश्वत सत्य सिद्धांत है, मनुष्य की जिजीविषा तो अनन्त काल तक रहती है, परन्तु देह के साथ प्राणी मात्र के जीवन की एक सीमा है, आयु बढ़ती है और देह क्षीण होती जाती है, और एक समय ऐसा आता है।
आध्यात्मिक शास्त्रोक्तानुसार कि शरीर के भीतर रहने वाली विभिन्न नामों से जानी जाने वाली चेतना निकल जाती है, एवं मनुष्य को मृत मान कर इसकी देह को भिन्न-भिन्न रस्मों अनुसार पंचतत्व में विलीन कर दिया जाता हैै।
यही नियम वनस्पति जगत में है, लेकिन पेड़-पौधों को मनुष्य की देह की भांति भूमि में गाड़ना या अग्नि में जलाना या पानी में बहा देने जैसा कोई नियम नहीं है, मनुष्य का मरण निश्चित है, इस रहस्य को समझने वाला व्यक्ति अपने एक निश्चितकालीन जीवन को सार्थक करना चाहता है।
संतों, मुनियों, महात्माओं, ज्ञानिजनों, महापुरुषों और सिद्धों ने अपने जीवन के कटु अनुभवों के आधार पर यह बताया है कि मानव को अपने बुद्धिबल, विवेक व अपने अंतस की आवाज के आधार पर ऐसा जीवन जीना व बनाना चाहिये, जिससे यह प्रतीत हो कि सचमुच वह पशुओं से भिन्न है और श्रेष्ठ भी।
यदि वह मनुष्य जन्म पाकर भी पशुवत् जीवन जीता है तो फिर मनुष्य के जीवन को लानत कहा गया है, इसलिए मनुष्य के पास एक ऐसा अवसर होता है कि वह मानवता के कल्याणार्थ कुछ कर सकता है।
पानी केरा बुदबुदा अस मानस की जात।
देखत ही छुप जात है ज्यों तारा प्रभात।
तो फिर व्यक्ति को चाहिए कि इस अल्पकालीन जीवन को सार्थक बनाने के लिए मानवता के कल्याण में लग जायें, मानव को मानवता का त्याग नहीं करना चाहिये, जैसे हम औरों से अपने प्रति व्यवहार चाहते हैं, वैसे ही दूसरों के साथ व्यवहार करना मानवता का धर्म है।
अपने को प्रदत्त कष्ट में जैसी पीड़ा का अनुभव स्वयं को होता है, वैसी ही पीड़ा दूसरों को देने में होती है, एकात्मकता जानकर यह संकल्प लेना चाहिये कि मैं किसी को पीड़ा नहीं दूंगा, धरा पर स्वर्ग की स्थापना करने के भगवान महावीर ने जीओ तथा जीने दो का पाठ पढ़ाया था।
महाभारत काल में दुर्योधन से पांडवों ने केवल पांच ग्राम देने की विनय की थी, दुर्योधन ने सुईं की नोंक के बराबर जमीन भी देने से इनकार कर दिया, युद्ध हुआ और मानवता जीती और अमानवता हारी, जगत में जितने भी व्यक्ति महान हुयें है उन्होंने निश्चित रूप से मानव धर्म का पालन किया है।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- जीवात्मा मानवतायोग्य कर्म करके देवत्व को प्राप्त कर सकता है, महर्षि दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्दजी, महर्षि अरविंद, विनोबा भावे, वीर हटोबा गुरूदेव गणेश पुरीजी, आदि असंख्य महापुरुषों ने मानवता धर्म पर चलकर अपने जीवन उत्सर्ग किए हैं, इसीलिए उन्हें श्रद्धापूर्वक याद किया जाता है।
मानव की सुंदरता उसकी देह से नहीं, बल्कि उसके सुंदर कर्मों से होती है और यह सुंदर कर्म करना सिखाता है मानवता का धर्म, जब मानव से मानवता निकल गई तो फिर आदमी और पशु में कोई अंतर नहीं रह जाता है, क्योंकि आदमी पशुवत् व्यवहार तभी करता है जब वह मानवता खो बैठता है।
राम-रावण युद्ध हुआ, युद्ध में अनेक योद्धाओं सहित स्वयं रावण भी मारा गया, मरी हुई मानवता मानव को भी मार देती है, मानव के समक्ष दो ही तो रास्ते हैं, एक मानवता का और दूसरा दानवता का, मानवता से हटा तो दानवता घर कर लेती है, और मानव यदि मानवता के निकट रहता है तो वह ईश्वर के निकट रहता हुआ ईश्वर जैसा बनकर श्रेष्ठ कर्म करता है।
महावीर स्वामी में मानवता जागी, जीवों पर हो रहे अत्याचार देख कर वे बोले, हे संसार के लोगो, जीव हत्या मत करो, जीवों को भी पीड़ा का वैसा ही अनुभव होता है जैसा तुम्हें होता है, मानव धर्म वसुधैव कुटुंबकम् की स्थापना करके प्रेमपूर्वक जीने की पद्धति सिखाता है।
यह मानवता ही थी कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने हत्यारे जगन्नाथ को क्षमा करते हुए उसे कहीं भाग जाने को कह दिया था, गुरु नानकजी ने कहा है- हक हलाल की रोटी में दूध और बेईमानी से कमाई रोटी में खून टपकता है, मनुष्य का मौलिक और सबसे बड़ा धर्म मानवता ही है।
सज्जनों! जो धर्म वैर सिखाता है, उसे बुद्धिमान लोग धर्म नहीं कहेंगे, वह धर्म होने का कोरा दंभ मात्र हो सकता है, जीवन में ऐसा खोखला जीवन न जी कर मानव को मानवता के कल्याणार्थ ऐसे कर्म करने चाहिये, जिससे चांद-सितारों से जगमग-जगमग नभ की भांति वसुन्धरा भी जगमगा उठे।
जय महादेव!
ओऊम् नमः शिवाय्
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