संगति का सबसे बड़ा गहरा प्रभाव पडता है। हम जैसे साथियों के साथ रहते हैं, उनके अच्छे और बुरे स्वभाव का असर हम पर भी धीरे धीरे पडने लगता है। यदि हमारे मित्र या साथी ऐसे हैं जो बहुत ही बुद्धिमान पढ़ने में अत्यन्त रुचि रखने वाले तथा माता पिता एवं गुरुजनों के आज्ञाकारी हैं तो निश्चित रूप से एक दिन हम भी ऐसे ही बन जाएंगे लेकिन यदि हमारे साथी आवारा गाली गलौज करने वाले तथा झगडालू स्वभाव के हैं तो हमें भी गालियां देने में सकोंच नहीं होगा तथा हमारे चारों ओर जिस तरह का वातावरण होगा उसी से हम अच्छे और बुरे व्यक्ति के रूप में ढल जाएंगे।
कण्व ऋषि के वंश में सौभरि नामक एक अत्यन्त विद्वान् महापुरुष उत्पन्न हुए हैं। उन्होंने गुरुकुल में रहकर वेदों का गहरा अध्ययन किया था। उन्होंने संसार को और परमार्थ को अच्छी तरह समझ लिया था। वे ये जान गए थे कि संसार की प्रत्येक वस्तु एक दिन समाप्त हो जाती है। जो वस्तु आज हमें सुख देती है, अत्यन्त प्रिय लगती है, उसका अधिक सेवन करने से वही बुरी लगने लगती है।
फिर यदि उसमें सुख है तो सभी को अच्छी लगनी चाहिए लेकिन कुछ उसे बिल्कुल भी पंसद नहीं करते। यह स्थिति संसार की प्रत्येक वस्तु के साथ है चाहे वह खाने पीने की हो, पहनने ओढ़ने की हो या हमारे प्रयोग में आती हो। इस प्रकार उनका मन संसार की किसी वस्तु में नहीं लगता था बस भगवान के भजन में तथा वेद शास्त्रों के अध्ययन मनन तथा चिंतन में ही वे लगे रहते थे।
उनका मन उनसे बार बार कहता कि घर छोडकर किसी शांत सुंदर प्राकृतिक स्थान पर चला जाए तथा वहां रहकर तपस्या की जाए। माता पिता को भी पुत्र की इस भावना का पता लग गया। उन्होंने उसे बहुत समझाया- 'बेटे प्रत्येक वस्तु समय पर ही अच्छी लगती है। तुम युवा हो इस समय यद्यपि तुम्हारी भावनाएं वैराग्य की ओर हैं लेकिन युवावस्था में मन बड़ा चंचल होता है, वह जरा सी देर में डिग जाता है।
इस समय तुम्हें गृहस्थी बसाना चाहिए तथा गृहस्थी धम का पालन करने के पश्चात् फिर संसार को त्याग कर भगवान का भजन करना। कोई तुम्हारे इरादे में बाधा नहीं डालेगा और उस समय चूंकि तुम संसार को देख लोगे तुम्हारा चित्त पूरी तरह स्थिर रहेगा। तुम दृढता के साथ भगवान के भजन में लग सकोगे। लेकिन सौभरि विवाह करने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं हुए। उन्हें गृहस्थी बसाकर वृद्धावस्था की प्रतीक्षा करना समय बरबाद करना ही लगा।
वे दूसरों के गृहस्थ जीवन को देख चुके थे। उन्हें उस सबसे घृणा थीं। हां कभी कभी वे यह अवश्य विचार करते थे कि क्या माता पिता की आज्ञा का पालन न करना उचित है लेकिन अन्दर से फिर आवाज़ आती कि आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति अर्थात् आत्मकल्याण ही सबसे प्रिय वस्तु है। वे इस द्वंद्व में कुछ दिनों तक फंसे रहे। आख़िर इसी निश्चिय पर पहुंचे कि सत्य का अनुभव करना ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है और एक दिन चुपचाप घर त्यागकर वन में चले गए।
चलते चलते वह यमुना नदी के किनारे एक अत्यन्त सुन्दर स्थान पर पहुंचे जिसे उन्होंने अपनी तपस्यास्थली के रूप में चुना। वहां चारों ओर हरे भरे वृक्ष फल और फूलों से लदे हुए थे जिन पर रंगबिरंगी चिडियां चहचहाती रहती थीं।
यमुना नदी धीर गंभीर गति से बहती रहती। हवा के झोंकों द्वारा उत्पन्न छोटी छोटी लहरें किनारे से आकर टकराती और हल्की सी मीठी ध्वनि उत्पन्न करतीं जो महात्मा सौभरि के मन को गुप्त ध्वनि के समान लगती और उसी को एकाग्र होकर सुनते। जब वे जल में खडे होकर अथवा बैठकर ध्यान लगाते तो छोटी बडी मछलियां उनके चारों ओर किलोल करती रहती।
कभी कभी उनकी गोद में भी आकर रूक जातीं। शाम के समय आस पास के गांवों की विभिन्न रंग की गाएं झुंड के झुंड गले में पडीं घंटियां बजाती हुई थकी मांदी थनों में दूध के भार को लिए जब लौटती तो उन्हें देखकर महात्मा सौभरि का मन झूम उठता।
अनेक दिन ऐसे बीत गए। सर्दी और गर्मी उनके लिए समान थी। वर्षा के दिनों में नदी का जल ऊपर तक उफन आता तथा किनारे तोडकर बहने लगता लेकिन ऋषि का मन न तो बढता और न घटता। वह तो समान रूप से शांत और स्थिर रहता। धीरे धीरे वर्षों बीत गए। जो भी उनकी तपस्या को देखता आश्चर्य करता। कभी वे वृक्ष के नीचे ध्यान लगाए दिनों बैठे रहते और कभी पानी के अंदर।
जाडों में जब ठण्ड के मारे शरीर अकड़ जाता बर्फीली हवाएं शरीर को कंपा देतीं, वे खुले बदन ऐसे ही बैठे रहते।
गर्मी के दिनों में जब झुलसा देने वाली लू चलती वे धूप में बैठकर अग्नि तापते। उनका शरीर जड़ हो गया था उस पर किसी प्रकार का कोई असर नहीं पडता। भूख प्यास तो पूरी तरह उनके नियन्त्रण में थीं।
जो कुछ जंगल से फल फूल मिल जाते अथवा गांव वाले कभी दे जाते वहीं उनका भोजन था। मिल गया तो ठीक नहीं तो प्रभु इच्छा। वर्षों बीत गए, यहीं पता नहीं चला कि जवानी कब चली गई। लम्बी दाढी और मूछों ने चेहरे को ढ़क लिया। सिर के बाल भी श्वेत होने लगे। अचानक मीठे दूध से भरे कटोरे में विष की बूंद गिरी या कहें कि देवताओं ने उनकी परीक्षा लेने की ठानी जिसमें कि वे बुरी तरह असफल हुए। वे प्रायः पानी के अंदर बैठकर तपस्या किया करते थे। मछलियां उनके चारों ओर तैरती ही रहती थीं। वे ऋषि की परिक्रमा सी करती रहतीं और उनके शरीर को छूती फिसलती रहती। वे जरा भी उनकी उपस्थिति से विचलित नहीं होतीं।
एक दिन अचानक ऋषि का ध्यान कुछ अधिक ही उनकी ओर चला गया। उन्होंने देखा कि एक मत्स्य जोडा कितने आनन्द से एक दूसरे का पीछा कर रहा है तथा किस तरह से लड़ते झगड़ते तथा मुस्कराते हुए लग रहे हैं। उनके चारों ओर उनके अनेक बच्चे इधर उधर घूम रहे हैं तथा पानी में खेल रहे हैं। अचानक ऋषि सोचने लगे, यह भी संसार का एक आनन्द है जिससे मैं वंचित रह गया। इसमें भी सुख है जिसकी वजह से लगभग सभी मनुष्य गृहस्थ धर्म का पालन करते हैं। मुझे इसे भी भोगना चाहिए था।
मेरे पिता ने मुझे कितना समझाया, लेकिन मैंने उनकी एक न मानी। वे बेचैनी के साथ पानी से बाहर निकल आए। उनका मन चंचल हो उठा। वह किसी प्रकार भी शांत न होता था और न भगवान के ध्यान में लगता था।
जब भी वे ध्यान करने बैठते उन्हें मछलियां दिखाई देने लगतीं, जो हंसी-खुशी से पानी में किलोल करती फिर रही थीं। यह उन मछलियों की नित्य प्रति की संगति का ही प्रभाव था जिसने ऋषि सौभरि की तपस्या को भंग कर दिया था । वास्तव में ऋषि ने संयम के द्वारा अपने शरीर को तो तपा लिया, अपने बस में कर लिया लेकिन वे अपने मन को नहीं बदल सके। शरीर और इन्द्रियों के नियंत्रण के साथ- साथ मन का बदलना भी आवश्यक है। जब तक वह नहीं बदलता, कुछ नहीं पाया जा सकता।
एक दिन उन्होंने कुछ निश्चय किया और अपना स्थान छोडकर एक ओर को चले दिए। चलते- चलते वे सिंध प्रदेश में सबसे अधिक शक्तिशाली एवं प्रतापी राजा ‘त्रसद्दस्यु’ के दरबार में सहसा उपस्थित हो गए। राजा त्रसद्दस्यु का नाम वास्तव में साथक था उनके नाम से ही आर्यों के शत्रु दस्यु राजा कांपने लगते थे। उन्होंने कभी भी अपने शत्रुओं को सिर नहीं उठाने दिया था।
वे ऋषि-महर्षियों का भी बड़ा आदर-सम्मान करते थे। सौभरि ऋषि का नाम सारे भारत में विख्यात था उनकी तपस्या से सभी चमत्त्कृत थे। उन्हें दरबार में अचानक देखकर सभी आश्चर्यचकित रह गए। राजा ने सिंहासन छोडकर उनका स्वागत किया तथा उन्हें जल आदि से तृप्त करके सुखपूर्वक बैठाया और तब उनसे कुशल-मंगल पूछते हुए अत्यन्त विनम्रता के साथ आने का प्रयोजन जानना चाहा।
ऋषि बोले, 'मैं तुम्हारी कन्या से विवाह करने का इच्छुक हूँ।' राजा इस बात को सुनते ही सकते में आ गए। वे सोचने लगे कि कहां यह वृद्ध ऋषि और कहां मेरी सुकुमारी बेटी! क्या यह उचित होगा कि मैं अपनी युवा बेटी का विवाह इस वृद्ध पुरुष के साथ कर दूँ। अन्य राजा लोग क्या कहेंगे, मेरी प्रजा में क्या ख्याति रह जाएगी। इस वृद्ध को देखो, इस आयु में गृहस्थ जीवन बिताने की सोच रहा है, लेकिन इन्कार भी नहीं किया जा सकता।
यदि कहीं क्रुद्ध हो गए तो राज्य की खैर नहीं। अंत में राजा ने एक युक्ति सोच ली। वे बोले, 'महात्मन्, हम लोग क्षत्रिय हैं, हमारे यहाँ स्वयंवर का रिवाज है , आप मेरे साथ अंत:पुर में चलें, जो राजकुमारी आपको पसंद कर लेगी मैं उसी से आपका विवाह कर दूँगा।' दोनों महल के रनिवास की ओर चल दिए। रास्ते में ऋषि ने अपने तपोबल से एक अत्यन्त सुंदर युवा का रूप धारण कर लिया।
वे ऐसे लगने लगे जैसे साक्षात सौन्दर्य के देवता अनंग हो। जैसे ही महल में पहुँचे और राजा ने आगन्तुक के आने का कारण बताया, सभी राजकुमारियों ने ऋषि के सौंदर्य और आकर्षण को देखकर उन्हें घेर लिया तथा सभी उनके साथ विवाह करने के लिए उत्सुक हो गई उनकी संख्या पचास थी ।
राजा ने यह स्थिति देखकर शुभ मुहुर्त में अत्यन्त उत्साह एवं उल्लास के साथ सभी राजकुमारियों का विवाह ऋषि सौभरि के साथ कर दिया। उन्हें इतना घर गृहस्थी का सामान दिया कि ऋषि को किसी प्रकार की भी कोई चिन्ता न रही । गायों के झुंड, घोडे विभिन्न प्रकार के वस्त्र, रत्न तथा आभूषण प्राप्त करके ऋषि का मन आनन्दित हो गया। रास्ते में ऋषि ने इन्द्र देवता की प्रार्थना की और उन्हें यज्ञ में उपस्थित होकर भेंट स्वीकार करने का आग्रह किया।
उन्होंने यही चाहा कि उनका यौवन सदा बना रहे, उनकी पत्नियां उनसे सदा प्रसन्न रहें। वे कभी आपस में कलह न करें। देवताओं के भवन निर्माता विश्वकर्मा उनके लिए यमुना के किनारे पर एक सोने का महल बना दें जो धन-धान्य से पूर्ण हो तथा जिसके चारों ओर स्वर्गीय फलों और फूलों की वाटिकाएं हों ताकि वे गृहस्थ का भरपूर सुख उठा सकें। इन्द्र देवता उनकी तपस्या और प्रार्थना से पहले ही संतुष्ट थे। उन्होंने 'तथास्तु' कहा और स्वर्ग ओर प्रस्थान कर गए। अब ऋषि आनन्दपूर्वक अपने दिन बिताने लगे।
चारों ओर सुंदर स्त्रियों का समूह, हास–परिहास तथा भांति–भांति के खेल।
वर्षों बीत गए, समय का पता नहीं चला। छोटे-छोटे बच्चों की तोतली बोली उनके मन में आनन्द की लहरें उठाती रहती। परन्तु धीरे-धीरे मन अब फिर उकताने लगा। मन ने प्रश्न किया, क्या यह सत्य है, सदा ऐसे ही रहेगें? वैराग्य की वृत्ति ने फिर सिर उठाना प्रारम्भ किया। जिस वस्तु को प्राव्त करने के लिए मन अथक परिश्रम करता है और जब उस प्राप्त कर लेता है तो वह भोगते-भोगते नीरस हो जाती है। ऋषि के मन में विचार आया कि तूने किस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए घर छोडा था और फिर एक इतना बड़ा जंगल खडा कर लिया।
जिसके लिए मैंने अपनी वर्षों की घोर तपस्या का त्याग किया क्या वास्तव में यह उससे बडी वस्तु है। क्या इसी मनुष्य सुखमय गृहस्थ जीवन कहते हैं। इससे तो मैं कल्याण का रास्ता छोड़ बैठा और संसार में फंस गया। मैनें योग का रास्ता सांसारकि भोगों के लिए छोड दिया।
कितनी बडी भूल की। इस समय उन्हें सच्चा वैराग्य उत्पन्न हो गया था। युवावस्था का वैराग्य कच्चा था, अनुभवहीन था। उन मछलियों की सगंति ने उनके स्वभाव को परिवर्तित कर दिया था। उन्होंने तपस्या के समय की शांति, सतोंष और मन की स्थिरता को देखा था और अब गृहस्थ के सुख को भी भोगा।
तब उनकी समझ में यह आया कि गृहस्थ का अनुभव भी आवश्यक है और एक दिन जब उनके सभी बच्चे समर्थ हो गए तो उन्होंने गृहस्थी का त्याग कर दिया और जंगल में जाकर पुनः तपस्या में रत हो गए तथा अंत में भगवान के दर्शन करके आवागमन के चक्र से सदा-सदा के लिए मुक्त हो गए।
उनकी पत्नियों पर भी उनकी संगति का गहरा प्रभाव पडा। वे सब भी उन्हीं के बताए हुए मार्ग पर चल पडी और सदगति को प्राप्त हुई। इसलिए सदा अच्छे मित्रों, साथियों तथा सज्जन व्यक्तियों को ढूंढते रहना चाहिए तथा उन्हीं की सगंति में रहना चाहिए।!!!!!
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