व्यवस्थाओं के शीर्षासन का समय




निजी विद्यालय (Private school) और निजी चिकित्सालय (Private hospital) अगर आपके पास हैं तो समझो आपके पास पैसा छापने की मशीन है। पिछले दिनों अक्षय कुमार की एक फ़िल्म आई थी गब्बर। उसमें हॉस्पिटल के सत्य को उजागर किया गया था।

एक वर्ष पहले एक गुड़गांव की महिला डॉक्टर चर्चा में थी जिसने 69 बच्चों को समय से पहले माँ का गर्भ काटकर सिर्फ इसलिए पैदा कर दिया था ताकि वो पर्याप्त पैसे के साथ अमेरिका घूम सके।

एक ताजा घटना हमारे खास मित्र के साथ घटी है। उनकी छह महीने की बच्ची पैदा हुई, तीन महीने एक चिकित्सालय में रखना पड़ा। सरकारी अस्पताल में खर्च प्रतिदिन 300 रु है अलग कमरे का, यानी 3 महीने के 27 हजार रुपए। कुछ दवाई वगैरह के मिलाकर अधिक से अधिक खर्च एक लाख होना था। लेकिन निजी चिकित्सालय में वो खर्च 12 लाख पर पहुँचा।

1970 तक चीन में व्यवस्था बहुत कमाल की थी, हर गाँव शहर में अस्पताल होते थे जैसे हमारे यहाँ हैं, उनमें सरकारी वेतन पर डॉक्टर भी थे, एक नियम गजब का था कि जिस गाँव में जिस डॉक्टर की ड्यूटी है उस गाँव में जितने अधिक स्वस्थ लोग हैं सैलरी भी उतनी ही बढ़िया मिलती थी।

और जितने लोग बीमार होते, उतने पैसे डॉक्टर के काट लिए जाते और उन पैसों से बीमारों का उपचार किया जाता। तो डॉक्टर पूरा दिन, पूरा महीना, पूरा साल दिन भर गाँव में घूमता और लोगों की सेवा करता, स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करता, योग प्राणायाम कराता, स्वच्छता अभियान चलाता, खाने पीने के प्रति जागरूक करता, ताकि कोई बीमार न पड़े और वेतन पूरा मिले।

अब चूंकि डॉक्टर की पूरी आमदनी इस बात पर टिकी है कि लोग अधिक से अधिक बीमार हों, अधिक दिन तक बीमार रहें, ताकि अधिक कमाई हो। तो आप स्वयं सोच सकते हैं कि डॉक्टर किस दिशा में कदम उठाएगा ?

तो योग करें, खान पान का ध्यान रक्खें, प्रतिदिन थोड़ा व्यायाम करें, ध्यान करें।

कुछ सहायता आपको ये पुस्तक पढ़ने से भी मिल सकती है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें