जाने क्यों"
माँ की डाँट में कितना सुकून था
मैं बच्ची हूँ तब मुझे यकीन था
अब वो अधिक प्यार दिखाने लगी है
जाने क्यों माँ अब परायी सी लगने लगी है...
काम कितना पहले बताती थी
ना कर पाऊँ तो झिड़की भी लगा देती थी
गुस्सा तब उसके नाक पर टिका था
जिसमें कितना अपनापन छिपा था
अब बात बात पर प्यार जताने लगी है
जाने क्यों माँ अब परायी सी लगने लगी है...
पहले तो काम पर काम कराती थी
हर काम में जब तब कमी निकालती थी
इस बहाने सब कुछ सिखा डालती थी
अब तो सब काम खुद करना चाहती है
थक कर आई है आराम कर
मुझसे सिर्फ यही गीत गाती है
अपनी तो बीमारी भी छुपा लेती है
मेरी तो एक छींक पर दुनियाँ हिला देती है
जाने क्यों माँ अब परायी सी लगती है...
पहले हर सब्जी खिलाती थी
सेहत के लिए ही सब खाना तो ज़रुरी है
मैं माँ हूँ ,अच्छा बुरा सिखाना मेरी मज़बूरी है
अब तो बिन कहे मेरी पसंद का ही बनाती है
मेरे मना करने पर भी ज़बदस्ती खिलाती है
एक ही दिन में जाने क्या क्या बना देती है
मुझको तो बस एक मेहमान बनाती है
जाने क्यों माँ अब पराई सी लगती है...
पहले जेबखर्ची मांगने पर आंखें दिखाती थी
मुझसे कहो मैं ला कर दूंगी,बातें बनाती थी
बाहर का मत खाओ ये भी समझाती थी
अब तो खुद बाहर खिलाने ले जाती है
मायके से लौटते वक्त ढ़ेरों उपहार और पैसा लुटाती है
मना करने पर दुनियाभर की कसमें दे डालती है
आँखों में आँसू भर कर सीने से लगा लेती है
डाँट खाने को तरस गई मैं पर वो तो पलकों पर बिठाती है
जाने क्यों माँ अब पराई सी लगती है
कोई मेरी माँ को ये समझा दो
मैं तुम्हारे लिए अब भी वही हूँ
थोड़ा बतला दो
आज भी मुझको तुमसे बहुत कुछ सीखना है
तुम हमेशा माँ और मैं बेटी ही रहूंगी
तुम बड़ी और मैं छोटी ही रहूँगी
बचपन की वो डाँट एक बार फिर से तो लगा दो
मेरा बचपन माँ फिर से तुम लौटा दो।
माँ की डाँट में कितना सुकून था
मैं बच्ची हूँ तब मुझे यकीन था
अब वो अधिक प्यार दिखाने लगी है
जाने क्यों माँ अब परायी सी लगने लगी है...
काम कितना पहले बताती थी
ना कर पाऊँ तो झिड़की भी लगा देती थी
गुस्सा तब उसके नाक पर टिका था
जिसमें कितना अपनापन छिपा था
अब बात बात पर प्यार जताने लगी है
जाने क्यों माँ अब परायी सी लगने लगी है...
पहले तो काम पर काम कराती थी
हर काम में जब तब कमी निकालती थी
इस बहाने सब कुछ सिखा डालती थी
अब तो सब काम खुद करना चाहती है
थक कर आई है आराम कर
मुझसे सिर्फ यही गीत गाती है
अपनी तो बीमारी भी छुपा लेती है
मेरी तो एक छींक पर दुनियाँ हिला देती है
जाने क्यों माँ अब परायी सी लगती है...
पहले हर सब्जी खिलाती थी
सेहत के लिए ही सब खाना तो ज़रुरी है
मैं माँ हूँ ,अच्छा बुरा सिखाना मेरी मज़बूरी है
अब तो बिन कहे मेरी पसंद का ही बनाती है
मेरे मना करने पर भी ज़बदस्ती खिलाती है
एक ही दिन में जाने क्या क्या बना देती है
मुझको तो बस एक मेहमान बनाती है
जाने क्यों माँ अब पराई सी लगती है...
पहले जेबखर्ची मांगने पर आंखें दिखाती थी
मुझसे कहो मैं ला कर दूंगी,बातें बनाती थी
बाहर का मत खाओ ये भी समझाती थी
अब तो खुद बाहर खिलाने ले जाती है
मायके से लौटते वक्त ढ़ेरों उपहार और पैसा लुटाती है
मना करने पर दुनियाभर की कसमें दे डालती है
आँखों में आँसू भर कर सीने से लगा लेती है
डाँट खाने को तरस गई मैं पर वो तो पलकों पर बिठाती है
जाने क्यों माँ अब पराई सी लगती है
कोई मेरी माँ को ये समझा दो
मैं तुम्हारे लिए अब भी वही हूँ
थोड़ा बतला दो
आज भी मुझको तुमसे बहुत कुछ सीखना है
तुम हमेशा माँ और मैं बेटी ही रहूंगी
तुम बड़ी और मैं छोटी ही रहूँगी
बचपन की वो डाँट एक बार फिर से तो लगा दो
मेरा बचपन माँ फिर से तुम लौटा दो।
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