फ़र्ज़ और बलिदान ~ भारतीय सेना के अदम्य साहस की कहानी!

 
"एक मनुष्य का जन्म ही कर्मो के अधीन होता है,हर क्षण कर्म करते रहना उसका स्वभाव है"
भगवान श्री कृष्ण ने रक्तरंजित कुरुश्रेत्र कि भूमि पे ,अर्जुन को कर्म का ही उपदेश दिया था,भाई-बहन,माता-पिता,गुरु-शिष्य,सखा-सहपाठी, इन रिश्तो का सत्य के सामने,अपने कर्तव्य के सामने,और मातृभूमि के सामने कोई मोल नही,ये भगवान श्री कृष्ण ने बताया था।
पितामह भीष्म ने स्वयं कहा था की,  "एक मनुष्य को सबसे ज्यादा प्रेम अपने मातृभूमि से करना चाहिए, अगर मैने  अपने पिता के लिए अपने मातृभूमि को बिना किसी योग्यता को परखे,यू न छोड़ा होता,तो आज ये महाभारत ये युध्द ना होता। और जब-जब मानवजाति अपने मातृभमि से ज्यादा अपने जज़्बातो,अपने रिश्तो को महत्व देगी,तब-तब ऐसे ही महाभारत होते रहेँगे"।


तो यहाँ यथार्थ ये आता है की, "कर्म,देश के प्रति कतर्व्य, और निष्ठा सभी फर्जो ,सभी मुल्यो से सर्वोपरि है"। इसके आगे समस्त रिश्ते मुल्यहीन हो जाते है,सारे दायित्व छोटे पड़ जाते है।
"मातृभूमि के प्रति कर्तव्य सर्वोपरि है,युध्द जीता तो राज भोगो गे, और शहीद हुए तो स्वर्ग की प्राप्ती होगी"।
महाभारत का युध्द मातृभूमि पे अधिकार,और राज्य के प्रति कर्तव्यपरायणता का ज्वलंत उदाहरण है।
यहाँ ऐसी ही एक वीर रस युक्त मर्म-र्स्पशी घटना का उल्लेख है, जिसमे देश के प्रति अपने कतर्व्य पालन को पुरा करने के लिए कैसे सारे रिश्तो को भूलकर उनका बलिदान कर दिया जाता है,का सजिव चित्रण है, जो निम्नवत है-:

तारीख 20 Oct. 1962,
सुबह के लगभग 8 बजे; भारत-चीन सीमा नियंत्रण रेखा मैक-मोहन रेखा।
5 वीं जाट बटालियन राजपूताना राईफल्स के 250 जवान सीमा पर तैनात थे। अचानक से रेडियो पर स्वर उभरा; रेडियो ऑपरेटर ने बात की और एक दहला देने वाली खबर सुनाई- "आज सुबह 5.14 पर चीन की पीली सेना ने भारी संख्या में अक्साई चीन की सीमा पर हमला किया, वहाँ कुमाऊँ रेजिमेंट के 123 जवानों के साथ तैनात कम्पनी कमांडर मेजर शैतान सिंह ने बड़ी वीरता से सामना किया लेकिन वे सभी शहीद हो गए।
दूसरा  हमला सुबह 6.30 पर लम्का- चू नदी पर हुआ और गुरखा रेजिमेंट को बुरी तरह घायल होकर पीछे हटना पड़ा।
हमें आदेश है कि 5 वीं जाट बटालियन, राजपूताना राईफल्स तुरन्त सक्रिय होकर सम्पर्कं बनाये और सीमा पर कड़ी निगरानी रखें और हमला होने की स्थिति में आक्रामक रुख न अपनाकर बचाव करते हुए, पीछे हट जाये और दौलत बेग ओल्दी तक की सारी चौकियाँ
खाली कर दें ।"
खबर वाकई दहलाने वाली थी। सामने चीन की 6 ब्रिगेड और पीछे दौलत बेग ओल्दी का बर्फ़ का तूफान। मुकाबले के लिए मात्र 250 जवान,हथियारोँ के नाम पर पुरानी 3 क्नॉट 3 की राइफलें, खाने-पीने के सामान, कपड़े और दवाईयों की भारी कमी।
रेडियो ने खबर सुनाकर कैम्प में बैठे सैनिक अधिकारियों को चिंता में डाल दिया था।  एक  भयानक सन्नाटा छाया था कि कम्पनी कमांडर मेजर वीरभद्र सिंह ने दृढ़ स्वर में कहा -हम पीछे नहीं हटेंगे। मुकाबले की तैयारी करो।

ये सुनकर कैप्टन भरत तिवारी ने कहा सर लेकिन गिनती के 250 जवान, 1 मेजर, 1 कप्तान, 2 लेफ्टिनेंट और 3 सूबेदार, बन्दूकों के नाम पर पुरानी जंग लगी राइफलें, न तो तो तोपखाना, न मोर्टार, न माउन्टेन बैटरी ! हमें पीछे हटकर इंतज़ार करना चाहिए मदद का ।

मेजर- "कैप्टन! तुम्हारी बात में दम है लेकिन तुम पीछे हटोगे तो कहाँ हटोगे?

पीछे दौलत बेग ओल्दी में आये बर्फ़ के तूफान में ?


दक्षिण का दमचौक व जरला क्षेत्र का बेस कैम्प भी यहाँ से 100 मील दूर है। आर्टिलरी और मोर्टार छोड़ो यहाँ सैनिकों की ताजी कुमुक भी नहीं आ पाएगी ।
और मुझे विश्वास है की तुम बर्फ़ के तूफ़ान में दब कर मरने, या पीठ पर गोली खाने के बजाय 50 चीनीयों को मार कर शहीद कहलाना पसन्द करोगे ।"

भरत- "यस सर !"
भरत ने मुड़ कर आवाज लगाई तो लेफ्टिनेंट कृष्णकांत और हरी सिंह, सूबेदार मेजर राम सिंह और नायब सूबेदार रामचन्द्र देशमुख के साथ 250 सैनिक कतार में खड़े थे।


भरत ने ओजपूर्ण लहजे में कहना शुरू किया;

" मेरे जवानों! हमले की तैयारी की जाये, समय बिल्कुल भी नहीं है । बर्फ के तूफ़ान में दबकर मरने से अच्छा है हम शौर्य प्रकट करें ।

  याद रखना "योग में लीन योगी और युद्धभूमि में लड़ता योद्धा मृत्यु के बाद भी सूर्यमण्डल को भेद देते हैं ।

ईस 200 साल पुरानी रेजिमेंट ने कभी हार का मुँह नहीं देखा है । हमने या तो विजय प्राप्त की हैया अपना बलिदान दिया है। सर्वत्र विजय है हमारा ध्येय, ये वाक्य, याद रखना।


भरत ने भाषण खत्म होने के बाद कहा कोई सवाल ...?

जवानों ने एक स्वर में कहा, "नो सर!"


भरत- जय हिन्द ।

और 250 जवानों की गगन भेदी आवाज गूंजी, "जय हिन्द" !



भरत ने कहा डिसमिस और सैनिक तैयारियों में जुट गए ।



शाम घिर आई थी अब तक, सूबेदार मेजर राम सिंह ने आकर भरत को सैल्यूट किया और बोले जय हिन्द सर ।

भरत- जय हिन्द सूबेदार साब! तैयारी कैसी है आपकी ?



राम सिंह- कप्तान साब, तैयारियां चाक-चौबंद हैं, हरी और कृष्णकांत साब अपने गश्ती दल के साथ अभी लौटे नहीं हैं ।





आप एक बार मोर्चे का निरीक्षण कर लें तो बेहतर होगा ।

भरत राम के साथ गया और मोर्चेबंदी को देख कर लौट आया ।

रात घिर आई थी, कृष्णकांत और हरी थके-माँदे गांफिल पड़े थे अपने दल के साथ । भोजन तैयार हो रहा था और बाकी जवान अपनी- अपनी जगह सतर्क और सीमा पर आँख गड़ाये बैठे थे।

भरत ने अपने कम्पनी कमांडर की ओर देखा और बोला सर जी! पता नहीं क्यों ? कुछ अनिष्ट की आशंका हो रही है ।


परिस्थितियाँ बिल्कुल अनुकूल नहीं हैं इस बार। चीन ने बड़ी तैयारी से हमला किया है वरना गुरखा रेजिमेंट को पीछे हटना पड़ा; विश्वास नहीं होता ।

मेजर ने एक नजर कप्तान पर डाली फिर जलती आग की ओर देखते हुए बोले -"मैंने विश्वयुद्ध देखा है कैप्टन । 1942 में इसी राजपूताना राईफल्स में कमीशन मिला था मुझे 2nd लेफ्टीनेंट की रैंक पर जर्मन सेना की सबसे खतरनाक और शक्तिशाली SS- बटालियन को रौंद कर रख दिया था मैंने। न जाने कितने जर्मनों को यमलोक भेजा है ।


परिस्थितियाँ यहाँ से भी खराब थीं । गोलियाँ खत्म होने पर संगीनों के सहारे लड़ाई लड़ी है । लगता था की बस अंत आज ही है लेकिन हर बार विजय मिलती और बच जाता। ब्रिटिश अफसर तक कायल थे मेरी बहादुरी के, न जाने कितने देसी-विदेशी सैनिकों और अधिकारियों की प्राण रक्षा मैंने की है" ।


विश्वयुद्ध समाप्त हुआ 1945 में और ठीक 3 साल बाद कश्मीर में पाकीयों को दौड़ा-दौड़ा कर मारने


पर वीर चक्र मिला और आज इन अफीमची चीनियों की बारी है ।




कैप्टन याद रखना - "कर्तव्यपथ पर जो भी मिले मृत्य या विजय यह भी सही वह भी सही" ।

भरत चुप -चाप सुनता जा रहा था, उसने पूछा सर आपके परिवार में कौन- कौन है अभी ?



मेजर ने कहा बड़े भाई साहब, भाभी, उनके बच्चे और एक छोटी बहन थी जिसकी कब की शादी हो गयी है ।

भरत ने पूछा सर आपने शादी नहीं की है क्या ?



मेजर ने कहा नहीं तो भरत पूछ बैठा क्यों ?

मेजर हँस पड़े और बोले शायद दुबारा मौका न मिले लो सुन लो दिल का हाल ।



"उसका नाम परिणीता था। लाहौर के नामी वकील की इकलौती बेटी थी । हमारा घर एक ही मुहल्ले में था और मेरे पिता जी बड़े जमींदार थे । हमारा बचपन साथ-साथ खेलते बीता था और बड़े होकर कब प्यार हुआ पता ही न चला। बड़े नाजों में पली थी वो सबकी दुलारी, मैं भी सबका प्यारा था लेकिन अपनी बदमाशियों के कारण पिता जी अक्सर कुटाई कर देते थे ।


मैं रोता- कलपता उसके पास पहुँच जाता और वो बड़े प्यार से अपने हिस्से के दूध में हल्दी

डाल कर मुझे पिला देती थी।

22 साल की उम्र मेँ मैँ सेना मेँ भर्ती होकर देहरादून चला आया।बड़े भाई साहब भी सपरिवार दिल्ली आ बसे और यहीँ अपनी डिस्पेसंरी खोल ली, छोटी बहन का विवाह भी यहीँ दिल्ली मेँ कर दिया था& पिता जी के देहान्त के बाद लाहौर की सम्पत्ति बेचकर माँ को अपने पास बुला लिया।
1945 मेँ विश्वयुद्ध समाप्त हुआ और मैँ लौटा तो मेरी शादी की बात परिणिता के साथ शुरु हुई लेकिन 1946 मेँ माँ के देहान्त के बाद फिर मेरी शादी 1 साल के लिये रुक गई।
सन् 1947 मेँ भारत को चीर कर दो टुकड़ोँ मेँ बांटा गया&हम स्वतंत्र हो गये थे।भारत के काफी मुसलमान बड़े शौक से पाकिस्तान गये और वहां से हिन्दू,सिक्ख, ईसाई और अन्य धर्मोँ के लोगोँ को मार पीट,लूटकर वहां से भगाया जाने लगा।
पाकिस्तान से आने वाली हर ट्रेन मेँ केवल लाशेँ भरी होतीरक्तरंजित, क्षतविक्षत शव । क्या बच्चे,क्या बूढ़े,क्या जवान ?

महिलाओँ, लड़कियों और तो और छोटी-छोटी बच्चीयोँ के बलत्कृतविभत्स शव। लाहौर से आने वाली हर ट्रेन की एक-एक लाश पलट कर देखी थी मैँने और  बड़े भाई ने। चार दिनोँ तक भूखे-प्यासे, बावले दौड़ने के पश्चात मुझे उसकी और उसके पूरे परिवार की लाश का तोहफा मिला था मेरे पाकिस्तानी भाईयोँ की ओर से।
जानते हो कैप्टन; युद्धभूमि मेँ 100 सैनिको को मशीनगन से भून देने के बाद तुम्हे उबकाई नहीँ आयेगीतुम्हारा जी नहीँ कचोटतातुम्हेँ उनपर दया नहीँ आती क्योँकी वे भी तुम्हारी तरह सिपाही थे और इससे ज्यादा सम्मान जनक  मृत्यु उन्हे कहीँ और न मिलेगी। तुमने किसी निरपराध की हत्या नहीँ की है या न तो किसी का बलात्कार किया है लेकिन वो विभत्स हत्यायेँ; परिणीता के साथ दुष्कर्म के बाद हत्या कर दी गई थी, उसके मृत शरीर को नोँच डाला गया था और तो और उसकी छोटी बहन जो केवल 12 साल की थी उसे भी न बख्शा था।पूरे डिब्बे मेँ न जाने और कितने ऐसे मृत लोग पड़े थे।

परिणिता मेरे मन मेँ बड़ी गहराई तक रची बसी थी और मैँ उसका शव देख जड़ रह गया था।छोटी बहन  और भाईसाहब ने कई रिश्ते देखे पर मैँ न माना।
कैसे मैँ भूल जाता परिणिता कोउसके लहुलुहान शव कोकैसे कैप्टन कैसे?
कहते-कहते मेजर का गला रुंध गया।भरत ने मेजर के कंधे पर हाथ रख कर कहा सॉरी सर।
मेजर ने अपनी नम आखेँ पोंछी और भरत से पूछा तुम बताओ तुम्हारी शादी हुई या नहीँ?
भरत बोला हो गई है सर! और फिर सकुचाते हुए बोला मधुरिमा मिश्र से मधुरिमा तिवारी बनाने  मेँ बड़े पापड़ बेलने पड़े|

मेजर ने हंसते हुए कहा अच्छा तो मेरे सेकेण्ड इन कमाण्ड को पापड़ बेलना भी आता है। मैँने सोचा तुम
केवल अचूक निशाना लगाने और फौजी कमाण्ड देने के अलावा बिलकुल बेकार हो!
मेजर ने फिर पूछा और बच्चे?
भरत ने जरा यादोँ मेँ खोकर कहा सर एक बच्ची है 6 माह कीकृति नाम है और मैँने तो अभी उसे देखा
भी नहीँ हैयहां से लौटूंगा तभी भेँट होगी।
बातोँ का सिलसिला चलता रहा और अगली सुबह घिर आयी।
अगला दिन 21 Oct. 1962
पूरी तरह शान्त रहा जैसे तूफान आने के पहले समुद्र शान्त हो। पूरा दिन बीतने के बाद 22 Oct. को रात 12.15 पर हमला हुआ।
चीन की पूरी एक ब्रिगेड ने घातक हथियारोँ के साथ हमला किया था।

कम्पनी कमाण्डर ने फायरिँग के आदेश दिये और राजपूताना राईफल्स के वारक्राई राजा रामचंद्र की जय की गगनभेदी गूँज के बाद सैनिको ने फायरिँग शुरु कर दी।
पैदल चीनी आगे बढ़ते और गोली खाकर गिर पड़तेलेकिन कब तकधीरे-धीरे कारतूस लगभग खत्म हो गये तो भरत ने फायरिँग धीमी करने के आदेश दिये जिससे बेवजह कारतूस जाया न होँ। उधर चीनी कमाण्डर ने भी भांप लिया की दुश्मन की बंदूके खाली है और उसने पूरी ब्रिगेड को एक साथ झोँक दिया।

भरत ने फिर फायरिँग शुरु कर दी और वातावरण सैनिकोँ की चीखोँ, बारुद की गंध और गोलियोँ की आवाज से फिर से भयावह हो गया था धरती रक्त से लाल हुई जाती थी लेकिन मशीनगनोँ के आगे 3नाटॅ3 की राईफल कब तक टिकतीकुछ की बंदूके खराब हो गई थी तो कुछ के कारतूस खत्म हो गये थे। अचानक एक ग्रेनेड कैम्प मेँ गिरा और जोरदार धमाके के साथ कम्पनी कमाण्डर मेजर वीरभद्र सिँह शहीद हो गये थे ।

भरत की आंखो मेँ आसूं आ गये थे। उसने देखा राम सिँह मृत पड़े थे।लेफ्टिनेँट हरि कृष्णकांत को  फर्स्टएड दे रहे थे की कारबाईन की 7-8 गोलियाँ उनके सीने मेँ धंसती चली गईँ  और  वह वहीँ जमीनपर गिर गये।
भरत की बंदूक मेँ बुलेट फंस गई थीवह झल्ला उठा था। आस-पास देखा तो 20 कदम पर हरी की राइफल पड़ी थी। भरत बड़ी सतर्कता से कोहनी के बल रेंगकर गया और बंदूक लेकर लौटने के बाद जैसे ही अपनी पोजिशन पर चढ़ना चाहा 3-4 गोलियाँ उसके पेट और जांघो मेँ आ लगीँ।

भरत कुछ पल दम साधे पड़ा रहा फिर साहस बटोर रेत की बोरी पर चढ़कर गोली चलानी शुरु की लेकिन 5-7 फायर के बाद मैगजीन खाली हो गई थी।उसने देखा तो बैग मेँ 2 ग्रेनेड बाकी थे । चौकी पर तैनात सारे जवान शहीद हो चुके थे और चीनी लेफ्टिनेंट सबसे आगे सैनिकों को लिए बढ़ता आ रहा था ।
भरत के मुँह से खून निकल रहा था। उसने कोहनी से होंठ पोंछे, रक्तरंजित होंठो पर क्रोधयुक्त विजयी मुस्कान दौड़ गयी। उसने ग्रेनेड हाथों में लिया और इंतज़ार करने लगा । जब चीनी कमांडर  4-5 कदम दूर था तभी भरत ने ग्रेनेड की सेफ्टीपिन खींच कर अपने जैकेट में डाल ली और एक बार फिर राजपूताना के वार क्राई राजा रामचन्द्र की जय कहकर सीधा चीनी सैनिक अधिकारी पर कूद पड़ा । 

भरत के अचानक छलाँग लगाने से कोई कुछ समझता इसके पहले वह कमांडर को अपने  मजबूत हाथों में पकड़े जमीन पर गिर पड़ा। बाकी चीनी जवान पहले तो हड़बड़ा कर पीछे हटे लेकिन अपने अधिकारी को भरत के हाथों में जकड़ा देख भरत के ऊपर बन्दूक की बट से मारना शुरू किया और ईधर भरत आँखे बन्द किये दम साधे गिन रहा था 22, 23, 24........




उसके मन में एक-एक कर शहीद मेजर, हरी सिंह और अन्य जवानों की तस्वीरें आ-जा रहीं थीं । उसने गिना 26, 27.......उसके मन में हूक सी उठी और याद आई मधुरिमा; उसकी दिल जीत लेने वाली हंसी, उसने गिना 28, 29.......उसे याद आई कृति की; उसकी 6 महीने की बेटी जिसे उसने अभी देखा ही नहीं था, उसके जन्म के 4 महीने पहले ही तो वह लौट आया था ड्यूटी पर।

भरत का चेहरा पत्थर की तरह सख़्त हो चुका था। उसने गिना  30 और एक साथ 2 धमाकों में भरत के साथ 8-10 चीनी सैनिकों के चिथड़े उड़ गए। दरअसल हैण्डग्रेनेड की सेफ्टीपिन निकले 30 सेकेंड पूरे हो चुके थे ।
(समाप्त)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें