लंबे
समय से गायब एक कवि ने सोशल मीडिया पर अपनी वाल पर लिखा कि गत पंद्रह जून
को वह अपने गांव में अपनी दादी की बरसी से घर लौटा तो पत्नी ने बहुत कलेश
किया। वैसे तो उसे भी साथ जाना चाहिये था किंतु वह नहीं गई। सबको माता पिता
के महत्त्व की कविता सुनाने वाला व्यक्ति इतना मजबूर कि उसकी पत्नी उसे
माता पिता से अलग बिलकुल अलग. करने की जिद लिये बैठी है। उस दिन 'आत्महत्या
करने अथवा हमेशा के लिये घर छोडऩे' का ही
विकल्प उसके सामने था। इसलिए आधी रात अपना फोन पर्स आदि सब पत्नी को सौंप
मात्रा तन पर पहने कपड़े में रोते रोते घर छोड़ा लेकिन न बीवी ने रोका, न
बेटी ने। सोसायटी के गार्ड के पास मौजूद रजिस्टर में घर छोडऩे की सूचना
दर्ज कर मीलों पैदल चलने और अब अज्ञात स्थान पर संन्यासी जीवन जी रहे कवि
ने मौका पाकर किसी दूसरे के मोबाइल से प्रेषित संदेश में और भी बहुत कुछ
लिखा है जो परिवार के अर्थ को अनर्थ में बदलता हुआ दिखाई दे रहा है। यह इस
तरह का पहला मामला नहीं है। आज पति-पत्नी के बीच तनाव अथवा संबंध विच्छेद
के समाचार अक्सर हमारे सामने आते रहते हैं। आखिर यह पवित्रा गांठ क्यों
ढीली होती जा रही है? इस वैचारिक टकराव का कारण अहम है या आर्थिक
स्वतंत्राता?
क्या संस्कारों की भूमिका अब समाप्त हो चुकी है? एक ओर लिव इन रिलेशन, सिंगल पेरंटिंग तो दूसरी ओर न्यायालयों में शादी के दशकों बाद भी दहेज मांगने, प्रताडि़त करने अथवा तलाक के बढ़ते मामले चिंता का विषय है। ऐसे में महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि परिवार नामक संस्था को बचाने के लिए हमारी क्या भूमिका हो सकती है? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम सब भी अपने अपने ढंग से इस विखंडन में सहयोग ही कर रहे हों।
यह सब जानते हैं कि परिवार का महत्त्व क्या होता है लेकिन अनेक बार जब हम अपने आत्मकेन्द्रित व्यवहार को नियंत्रित नहीं कर पाते तो झूठे अहम और अनेक मामलों में बढ़ते बच्चों को लेकर मतभेदों के चलते हम स्वयं को एक ऐसे धरातल पर पाते हैं जहां विखंडन का क्षणिक विजय बोध तो हो सकता है लेकिन परिवार के प्रत्येक सदस्य को दीर्घकाल तक उसका दुष्प्रभाव झेलना पड़ते हैं। इस बात से शायद ही कोई असहमत होगा कि आदिमानव से आधुनिक मानव तक की समस्त विकास यात्रा संबंधों के महत्त्व और समर्पण के बिना संभव नहीं हो सकती थी। व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज और समाज से राष्ट्र का अस्तित्व है। एकल से संयुक्त अर्थात् परस्पर सहयोग की श्रृंखला की सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई परिवार ही है लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि एक ओर प्रौद्योगिकी ग्लोबल विलेज की अवधारणा प्रस्तुत कर रही है वहीं दूसरी ओर परिवार नामक संस्था पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।
दु:खद आश्चर्य की बात यह है कि तथाकथित उच्च शिक्षित और अपेक्षाकृत संपन्न वर्ग परिवार के महत्त्व को कमतर आंकता है। सदियों से परिवार को एक ऐसा प्रशिक्षण केन्द्र माना जाता है जहां हम निज पसंद-नापसंद से ऊपर उठकर एक दूसरे के साथ समन्वय करना सीखते हैं। मतभेद के बावजूद मनभेद को पनपने नहीं देते। एक-दूसरे के कष्ट और पीड़ा को उससे अधिक हम अनुभव करते हैं।
अपने पोषण और विकास का एक अंश निस्वार्थ भाव से परिवार और समाज को समर्पित करने के संस्कार जहां पुष्पित पल्लवित होते हैं, वह परिवार ही है लेकिन इधर जब से आधुनिक शिक्षा और संचार के आधुनिकतम माध्यमों ने मोर्चा संभाला है, संस्कारों के लिए स्थान काफी कम होता जा रहा है। पहले शिक्षा के लिए परिवार अस्थाई रूप से दूर होता है लेकिन उसके बाद नौकरी के लिए दूर देश जाकर रहने की विवशता, संयुक्त परिवार से संवाद सम्पर्क को लगातार कम करती है और एक दिन ऐसा आता है जब दिल- दिमाग में भी विभाजन की लकीरें खिंच जाती है। विखंडन का यह क्रम जब अगली पीढ़ी के युवा होते बच्चों तक जा पहुंचता है तो ओल्ड होम अपरिहार्य दिखाई देने लगता है। समाजशास्त्रिायों के लिए यह आश्चर्य का विषय है कि जिस संस्कृति में पति को परमेश्वर कहते हुए भी नारी के सम्मान को महत्त्वपूर्ण दर्जा देते हुए कहा जाता है 'यत्रा नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्रा देवता'।
ऐसे परिवेश में दोनों का एक दूसरे के आमने-सामने होना यह प्रमाणित करता है कि हम स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक मानने को तैयार नहीं है। यह जानते हुए भी कि सृष्टि और संस्कृति के विकास में दोनों की समान सहभागिता है, हम अपने अहम के समक्ष किसी को महत्त्व देना ही नहीं चाहते। इच्छा और आवश्यकता के अंतर को न समझ पाना, आय से अधिक खर्च और दिखावा तथा स्वच्छन्दता की बढ़ती होड़ जैसी समस्याओं के निदान की ओर हमारा ध्यान तक नहीं है। हम यह मानने को तैयार ही नहीं कि जब दोनों लोग कमाने लगे हैं तो आज पुरुष प्रभुत्व का स्थान नई व्यवस्था ले चुकी है लेकिन हम अब भी हर अभाव और समस्या के लिए पति और उनके परिजनों को ही दोषी मानते है।
यहां हमारा यह अभिप्राय हर्गिज नहीं है कि हर मामले में पत्नी ही दोषी होती है। अनेक पति और उनके परिजन भी अपनी जिम्मेवारी का निर्वहन नहीं करते लेकिन आज के शहरी जीवन में अधिकांश मामले बदलते परिवेश में अहम के टकराव की ओर संकेत करते हैं। आज रिश्ते नाते परिवार के संस्कार देखकर नहीं बल्कि उनके वर की आय, उसके संसाधन और सामान देखकर तय होते हैं। परिवार की भूमिका गौण होती जा रही है।
इसीलिए अब बात केवल और केवल वर वधू की प्रोफेशनल डिग्रियों और सैलरी पैकेज की होती है। इधर विवाह में परिवार की भूमिका भी सीमित होने की ओर है जहां बच्चे स्वयं की सब तय करने लगे हैं। समाजशास्त्रियों के मतानुसार टीवी चैनल ऐसे वातावरण के निर्माण में बहुत बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। दिनभर सास-बहू के झगड़ों और अवैध संबंधों को दर्शाते धारावाहिक इस विखंडन को घर-घर फैला रहे है।
दु:खद बात यह है कि हम इसे समझने को ही तैयार नहीं थे कि इसी बीच टीवी को बहुत पीछे छोड़ते हुए मोबाइल और सहज सुलभ इंटरनेट ने अपना शिकंजा कस दिया है। कर्तव्यों की चर्चा कहीं नहीं, बात होगी तो केवल अधिकारों की, कानूनों की जबकि हमारा सर्वोच्च न्यायालय भी अनेक मामलों में कानून के दुरूपयोग को स्वीकार चुका है। क्या आपको नहीं लगता कि इस स्थिति के लिए दोषी हम सब भी है। हमने अपने बच्चों को एक से बढ़कर एक संसाधन, सुविधाएं तो उपलब्ध करा दी लेकिन उन्हें जीवन जीने की कला यानी संस्कार देना जरूरी नहीं समझा।
बेटी को ससुराल वालों से न दबने की सीख देते हुए हमें यह कहां अनुमान होता है कि हमारी बहू भी यदि यहीं सीखकर आई तो हमारे परिवार का क्या होगा? हम व्यवस्था में सुधार के लिए राजनीति को दोषी ठहराते हैं लेकिन सामाजिक अव्यवस्था और परिवार विखंडन के लिए स्वयं को कब कोसेंगे? हम कब समझेंगे 'जिओ ओर जीने दो' जैसे सुसंस्कारों का महत्त्व? क्या परिवार की शांति को खतरे में डाल कर विश्व शांति की कल्पना संभव है?
क्या हम जानते हैं कि अशांत परिवारों के बच्चों के पथभ्रष्ट होकर अपराधी बनने की संभावना अधिक होती है? अगर हम अपनी भावी पीढ़ी का हित चाहते हैं तो सहयोग, समन्वय, धैर्य को अपने जीवन का अंग बनायें। अपने जीवन साथी को सम्मान दें। अधिकारों के साथ- साथ अपने कर्तव्यों और पूर्वजों की परम्पराओं तथा मर्यादा का भी ध्यान रखें।
पति- पत्नी एक दूसरे की मजबूरी नहीं, जरूरत बनें। ध्यान रहे इस महत्त्वपूर्ण संबंध को आप हर समय बराबरी और लाभ हानि के तराजू पर नहीं तोल सकते। - डा. विनोद बब्बर
क्या संस्कारों की भूमिका अब समाप्त हो चुकी है? एक ओर लिव इन रिलेशन, सिंगल पेरंटिंग तो दूसरी ओर न्यायालयों में शादी के दशकों बाद भी दहेज मांगने, प्रताडि़त करने अथवा तलाक के बढ़ते मामले चिंता का विषय है। ऐसे में महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि परिवार नामक संस्था को बचाने के लिए हमारी क्या भूमिका हो सकती है? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम सब भी अपने अपने ढंग से इस विखंडन में सहयोग ही कर रहे हों।
यह सब जानते हैं कि परिवार का महत्त्व क्या होता है लेकिन अनेक बार जब हम अपने आत्मकेन्द्रित व्यवहार को नियंत्रित नहीं कर पाते तो झूठे अहम और अनेक मामलों में बढ़ते बच्चों को लेकर मतभेदों के चलते हम स्वयं को एक ऐसे धरातल पर पाते हैं जहां विखंडन का क्षणिक विजय बोध तो हो सकता है लेकिन परिवार के प्रत्येक सदस्य को दीर्घकाल तक उसका दुष्प्रभाव झेलना पड़ते हैं। इस बात से शायद ही कोई असहमत होगा कि आदिमानव से आधुनिक मानव तक की समस्त विकास यात्रा संबंधों के महत्त्व और समर्पण के बिना संभव नहीं हो सकती थी। व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज और समाज से राष्ट्र का अस्तित्व है। एकल से संयुक्त अर्थात् परस्पर सहयोग की श्रृंखला की सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई परिवार ही है लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि एक ओर प्रौद्योगिकी ग्लोबल विलेज की अवधारणा प्रस्तुत कर रही है वहीं दूसरी ओर परिवार नामक संस्था पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।
दु:खद आश्चर्य की बात यह है कि तथाकथित उच्च शिक्षित और अपेक्षाकृत संपन्न वर्ग परिवार के महत्त्व को कमतर आंकता है। सदियों से परिवार को एक ऐसा प्रशिक्षण केन्द्र माना जाता है जहां हम निज पसंद-नापसंद से ऊपर उठकर एक दूसरे के साथ समन्वय करना सीखते हैं। मतभेद के बावजूद मनभेद को पनपने नहीं देते। एक-दूसरे के कष्ट और पीड़ा को उससे अधिक हम अनुभव करते हैं।
अपने पोषण और विकास का एक अंश निस्वार्थ भाव से परिवार और समाज को समर्पित करने के संस्कार जहां पुष्पित पल्लवित होते हैं, वह परिवार ही है लेकिन इधर जब से आधुनिक शिक्षा और संचार के आधुनिकतम माध्यमों ने मोर्चा संभाला है, संस्कारों के लिए स्थान काफी कम होता जा रहा है। पहले शिक्षा के लिए परिवार अस्थाई रूप से दूर होता है लेकिन उसके बाद नौकरी के लिए दूर देश जाकर रहने की विवशता, संयुक्त परिवार से संवाद सम्पर्क को लगातार कम करती है और एक दिन ऐसा आता है जब दिल- दिमाग में भी विभाजन की लकीरें खिंच जाती है। विखंडन का यह क्रम जब अगली पीढ़ी के युवा होते बच्चों तक जा पहुंचता है तो ओल्ड होम अपरिहार्य दिखाई देने लगता है। समाजशास्त्रिायों के लिए यह आश्चर्य का विषय है कि जिस संस्कृति में पति को परमेश्वर कहते हुए भी नारी के सम्मान को महत्त्वपूर्ण दर्जा देते हुए कहा जाता है 'यत्रा नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्रा देवता'।
ऐसे परिवेश में दोनों का एक दूसरे के आमने-सामने होना यह प्रमाणित करता है कि हम स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक मानने को तैयार नहीं है। यह जानते हुए भी कि सृष्टि और संस्कृति के विकास में दोनों की समान सहभागिता है, हम अपने अहम के समक्ष किसी को महत्त्व देना ही नहीं चाहते। इच्छा और आवश्यकता के अंतर को न समझ पाना, आय से अधिक खर्च और दिखावा तथा स्वच्छन्दता की बढ़ती होड़ जैसी समस्याओं के निदान की ओर हमारा ध्यान तक नहीं है। हम यह मानने को तैयार ही नहीं कि जब दोनों लोग कमाने लगे हैं तो आज पुरुष प्रभुत्व का स्थान नई व्यवस्था ले चुकी है लेकिन हम अब भी हर अभाव और समस्या के लिए पति और उनके परिजनों को ही दोषी मानते है।
यहां हमारा यह अभिप्राय हर्गिज नहीं है कि हर मामले में पत्नी ही दोषी होती है। अनेक पति और उनके परिजन भी अपनी जिम्मेवारी का निर्वहन नहीं करते लेकिन आज के शहरी जीवन में अधिकांश मामले बदलते परिवेश में अहम के टकराव की ओर संकेत करते हैं। आज रिश्ते नाते परिवार के संस्कार देखकर नहीं बल्कि उनके वर की आय, उसके संसाधन और सामान देखकर तय होते हैं। परिवार की भूमिका गौण होती जा रही है।
इसीलिए अब बात केवल और केवल वर वधू की प्रोफेशनल डिग्रियों और सैलरी पैकेज की होती है। इधर विवाह में परिवार की भूमिका भी सीमित होने की ओर है जहां बच्चे स्वयं की सब तय करने लगे हैं। समाजशास्त्रियों के मतानुसार टीवी चैनल ऐसे वातावरण के निर्माण में बहुत बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। दिनभर सास-बहू के झगड़ों और अवैध संबंधों को दर्शाते धारावाहिक इस विखंडन को घर-घर फैला रहे है।
दु:खद बात यह है कि हम इसे समझने को ही तैयार नहीं थे कि इसी बीच टीवी को बहुत पीछे छोड़ते हुए मोबाइल और सहज सुलभ इंटरनेट ने अपना शिकंजा कस दिया है। कर्तव्यों की चर्चा कहीं नहीं, बात होगी तो केवल अधिकारों की, कानूनों की जबकि हमारा सर्वोच्च न्यायालय भी अनेक मामलों में कानून के दुरूपयोग को स्वीकार चुका है। क्या आपको नहीं लगता कि इस स्थिति के लिए दोषी हम सब भी है। हमने अपने बच्चों को एक से बढ़कर एक संसाधन, सुविधाएं तो उपलब्ध करा दी लेकिन उन्हें जीवन जीने की कला यानी संस्कार देना जरूरी नहीं समझा।
बेटी को ससुराल वालों से न दबने की सीख देते हुए हमें यह कहां अनुमान होता है कि हमारी बहू भी यदि यहीं सीखकर आई तो हमारे परिवार का क्या होगा? हम व्यवस्था में सुधार के लिए राजनीति को दोषी ठहराते हैं लेकिन सामाजिक अव्यवस्था और परिवार विखंडन के लिए स्वयं को कब कोसेंगे? हम कब समझेंगे 'जिओ ओर जीने दो' जैसे सुसंस्कारों का महत्त्व? क्या परिवार की शांति को खतरे में डाल कर विश्व शांति की कल्पना संभव है?
क्या हम जानते हैं कि अशांत परिवारों के बच्चों के पथभ्रष्ट होकर अपराधी बनने की संभावना अधिक होती है? अगर हम अपनी भावी पीढ़ी का हित चाहते हैं तो सहयोग, समन्वय, धैर्य को अपने जीवन का अंग बनायें। अपने जीवन साथी को सम्मान दें। अधिकारों के साथ- साथ अपने कर्तव्यों और पूर्वजों की परम्पराओं तथा मर्यादा का भी ध्यान रखें।
पति- पत्नी एक दूसरे की मजबूरी नहीं, जरूरत बनें। ध्यान रहे इस महत्त्वपूर्ण संबंध को आप हर समय बराबरी और लाभ हानि के तराजू पर नहीं तोल सकते। - डा. विनोद बब्बर
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