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अमेरिका से हमारे बेटे सत्यम का फोन था.
फोन सुन कर सौरभ बालकनी की तरफ चले गए. क्या कहा होगा सत्यम ने फोन पर…मैं
दुविधा में थी…फिर थोड़ी देर तक सौरभ के वापस आने का इंतजार कर मैं भी बालकनी
में चली गई. सौरभ खोएखोए से बालकनी में खड़े बाहर बारिश को देख रहे थे. मैं भी
चुपचाप जा कर सौरभ की बगल में खड़ी हो गई. जरूर कोई खास बात होगी क्योंकि सत्यम के
फोन अब कम ही आते थे. वह पिछले 5 साल से अमेरिका में था. इस से पहले वह
मुंबई में नियुक्त था. अमेरिका से वह इन 5
सालों में एक बार भी भारत नहीं आया था.
सत्यम उन संतानों में था जो मातापिता के
कंधों पर पैर रख कर सफलता की छलांग तो लगा लेते हैं लेकिन छलांग लगाते समय
मातापिता के कंधों को कितना झटका लगा,
यह देखने की जहमत नहीं उठाते. थोड़ी देर
मैं सौरभ के कुछ बोलने की प्रतीक्षा करती रही फिर धीरे से बोली, ‘‘क्या
कहा सत्यम ने?’’
‘‘सत्यम की नौकरी छूट गई है,’’
सौरभ निर्विकार भाव से बोले.
नौकरी छूट जाने की खबर सुन कर मैं सिहर
गई. यह खयाल हमें काफी समय से अमेरिकी अर्थव्यवस्था के हालात के चलते आ रहा था. आज
हमारा वही डर सच हो गया था. हमारे लिए हमारा बेटा जैसा भी था लेकिन अपने परिवार के
साथ खुश है, सोच कर हम शांत थे.
‘‘अब क्या होगा?’’
‘‘होगा क्या…वह वापस आ रहा है,’’ सौरभ
की नजरें अभी भी बारिश पर टिकी हुई थीं. शायद वह बाहर की बरसात के पीछे अपने अंदर
की बरसात को छिपाने का असफल प्रयत्न कर रहे थे.
‘‘और कहां जाएगा…’’
सौरभ के दिल के भावों को समझते हुए भी
मैं ने अनजान ही बने रहना चाहा.
‘‘क्यों…अगर हम मर गए होते तो किस के पास आता वह…उस
की बीवी के भाईबहन हैं, मायके वाले हैं,
रिश्तेदार हैं, उन
से सहायता मांगे…यहां हमारे पास क्या करने आ रहा है…’’ बोलतेबोलते
सौरभ का स्वर कटु हो गया था. हालांकि सत्यम के प्रति मेरा दिल भी फिलहाल भावनाओं
से उतना ही रिक्त था लेकिन मां होने के नाते मेरे दिल की मुसीबत के समय में सौरभ
का उस के प्रति इतना कटु होना थोड़ा खल गया.
‘‘ऐसा क्यों कह रहे हो. आखिर मुसीबत के वक्त वह अपने घर नहीं
आएगा तो कहां जाएगा.’’
‘‘घर…कौन सा घर…उस ने इस घर को कभी घर समझा भी है…तुम
फिर उस के लिए सोचने लगीं…तुम्हारी ममता ने बारबार मजबूर किया है मुझे…इस
बार मैं मजबूर नहीं होऊंगा…जिस दिन वह आएगा…घर से भगा दूंगा…कह
दूंगा कि इस घर में उस के लिए अब कोई जगह नहीं है.’’
सौरभ मेरी तरफ मुंह कर के बोले. उन की
आंखों के बादल भी बरसने को थे. चेहरे पर बेचैनी,
उद्विग्नता, बेटे
के द्वारा अनदेखा किया जाना, लेकिन उस के दुख से दुखी भी…गुस्सा
आदि सबकुछ… एकसाथ परिलक्षित हो रहा था.
‘‘सौरभ…’’ रेलिंग पर रखे उन के हाथ को धीरे से मैं ने अपने हाथ में लिया
तो सुहाने मौसम में भी उन की हथेली पसीने से तर थी. सौरभ की हिम्मत के कारण मैं इस
उम्र में भी निश्ंिचत रहती थी लेकिन उन को कातर,
बेचैन या कमजोर देख कर मुझे असुरक्षा का
एहसास होता था.
‘‘सौरभ, शांत हो जाओ…सब ठीक हो जाएगा. चलो, चल
कर सो जाओ, कल सोचेंगे कि क्या करना है.’’
मैं उन को सांत्वना देती हुई अंदर ले
आई. मुझे सौरभ के स्वास्थ्य की चिंता हो जाती थी,
क्योंकि उन को एक बार दिल का दौरा पड़
चुका था. सौरभ चुपचाप बिस्तर पर लेट गए. मैं भी जीरो पावर का बल्ब जला कर उन की
बगल में लेट गई. दोनों चुपचाप अपनेअपने विचारों में खोए हुए न जाने कब तक छत को
घूरते रहे. थोड़ी देर बाद सौरभ के खर्राटों की आवाज आने लगी. सौरभ के सो जाने से
मुझे चैन मिला, लेकिन मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी.
आज सत्यम को हमारी जरूरत पड़ी तो उस ने
बेधड़क फोन कर दिया कि वह हमारे पास आ रहा है और क्यों न आए…बेटा
होने के नाते उस का पूरा अधिकार है,
लेकिन जरूरत पड़ने पर इसी तरह बेधड़क
बेटे के पास जाने का हमारा अधिकार क्यों नहीं है. क्यों संकोच व झिझक हमारे कदम रोक
लेती है कि कहीं बेटे की गृहस्थी में हम अनचाहे से न हो जाएं. कहीं बहू हमारा यों
लंबे समय के लिए आना पसंद न करे.
सत्यम व नीमा ने अपने व्यवहार से
जानेअनजाने हमेशा ही हमें चोट पहुंचाई है. मातापिता की बढ़ती उम्र से उन्हें कोई
सरोकार नहीं रहा. हमें कभी लगा ही नहीं कि हमारा बेटा अब बड़ा हो गया है और अब हम
अपनी शारीरिक व मानसिक जरूरतों के लिए उस पर निर्भर हो सकते हैं.
जबजब सहारे के लिए बेटेबहू की तरफ हाथ
बढ़ाया तबतब उन्हें अपने से दूर ही पाया. कई बार मैं ने सौरभ व अपना दोनों का
विश्लेषण किया कि क्या हम में ही कुछ कमी है,
क्यों नहीं सामंजस्य बन पाता है हमारे
बीच में…लगा कि एक पीढ़ी का अंतर तो पहले होता था, इस
नई पीढ़ी के साथ तो जैसे पीढि़यों का अंतराल हो गया. इसी तरह के खयालों में डूबी
मैं अतीत में विचरण करने लगी.
सत्यम अपने पापा की तरह पढ़ने में
होशियार था. पापा के समय में ज्यादा सुविधाएं नहीं थीं, इसलिए
जो कुछ भी हासिल हुआ, धीरेधीरे व लंबे समय के बाद हुआ लेकिन सत्यम को उन्होंने अपनी
क्षमता से बढ़ कर सुविधाएं दीं, उस की पढ़ाई पर क्षमता से बढ़ कर खर्च
किया. सत्यम मल्टीनेशनल कंपनी में बड़े ओहदे पर था,
शादी भी उसी हिसाब से बड़े घर में हुई.
नीमा भी नौकरी करती थी. अपने छोटे से साधारण फ्लैट,
जिस में सत्यम को पहले सभी कुछ दिखता था, नौकरी
व शादी के बाद कमियां ही कमियां दिखाई देने लगीं. जबजब छुट्टी पर आता कुछ न कुछ कह
देता :
‘कैसे रहते हो आप लोग इस छोटे से फ्लैट में. ढंग का ड्राइंगरूम
भी नहीं है. मम्मी, मुझे तो शर्म आती है यहां किसी अपने जानने वाले को बुलाते हुए.
यह किचन भी कोई किचन है…नीमा तो इस में चाय भी नहीं बना सकती.’
पहले साफसुथरा लगने वाला फ्लैट अब गंदगी
का ढेर लगता.
फिर सप्लाई का पानी पीने से उन का पेट
खराब होने लगा तो जब भी सत्यम या उस का परिवार आता तो मैं बाजार से पानी की बोतल
मंगा कर रखने लगी, लेकिन लाइट चली जाती तो उन्हें इनवर्टर की कमी खलती…गरमी
में ए.सी. व कूलर की कमी अखरती, तो सर्दी में एक अच्छे ब्लोवर की कमी…मतलब
कि कमी ही कमी…नाश्ते में सबकुछ चाहिए. पर सत्यम व नीमा कभी यह नहीं सोचते कि
जिन सुविधाओं के बिना उन्हें दोचार दिन भी बिताने भारी पड़ जाते हैं उन्हीं
सुविधाओं के बिना मातापिता ने पूरी जिंदगी कैसे गुजारी होगी और अब बुढ़ापा कैसे
गुजार रहे होंगे. सत्यम पर क्षमता से अधिक खर्च न कर क्या वे अपने लिए छोटीछोटी मूलभूत
सुविधाएं नहीं जुटा सकते थे? पर उस समय तो लगता था कि हमारा बेटा
लायक बन जाएगा तो हमें क्या कमी है. सौ सुविधाएं जुटा देगा वह हमारे लिए.
सत्यम कभी नहीं सोचता था कि वह जूस पी
रहा है तो मातापिता को बुढ़ापे में एक कप दूध भी है या नहीं…जरूरी
दवाओं के लिए पैसे हैं या नहीं. उन का तो यही एहसान बड़ा था कि वे दोनों इतने
व्यस्त रहते हैं…इस के बावजूद जब छुट्टी मिलती है, तो
वे उन के पास चले आते हैं, नहीं तो किसी अच्छी जगह घूमने भी जा सकते थे.
सत्यम का परिवार जब भी आता, उन
को सुविधाएं देने के चक्कर में मैं अपना महीनों का बजट बिगाड़ देती. उन के जाते ही
फिर उन के अगले दौरे के लिए संचय करना शुरू कर देती.
सौरभ की जानकारी में जब यदाकदा ये बातें
आतीं तो उन का पारा चढ़ जाता पर मां होने के नाते मैं उन को शांत कर देती. लगभग 5 साल
पहले सत्यम मुंबई में नियुक्त था. उसी दौरान सौरभ को हार्ट अटैक पड़ा. डाक्टर ने
एंजियोग्राफी कराने के लिए कहा. पूरी प्रक्रिया व इलाज पर आने वाले खर्चे को सुन
कर मैं सन्न रह गई. ऐसे समय तो सत्यम जरूर आगे बढ़ कर अपने पिता का इलाज कराएगा.
यह सोच कर मैं ने सत्यम को फोन किया. मेरे साथ तो कोई था भी नहीं, जो
भागदौड़ कर पाता. खर्चे की तो बात ही अलग थी,
लेकिन सत्यम की बात सुन कर मैं
हक्कीबक्की रह गई थी :
‘मम्मी, एक दूसरी कंपनी में मुझे बाहर जाने का मौका मिल रहा है, इस
समय तो मैं बिलकुल भी नहीं आ सकता. मुझे जल्दी ही अमेरिका जाना पड़ेगा. रही खर्चे
की बात, तो थोड़ाबहुत तो भेज सकता हूं पर इतना रुपया मेरे पास कहां.’
बेटे की आधी बात सुन कर ही मैं ने फोन
रख दिया. अस्पताल में जीवनमृत्यु के बीच झूल रहे उस इनसान के जीवन के प्रति सत्यम
के हृदय में जरा भी मोह नहीं जो उस का जन्मदाता है,
जो जीवन भर नौकरी कर के अपने लिए मूलभूत
सुविधाएं भी नहीं जुटा पाया, इसलिए कि बेटे के सफलता की तरफ बढ़ते
कदमों पर रंचमात्र भी रुकावट न आए. आज उसी पिता के जीवन के लिए कोई चिंता नहीं.
जिए तो जिए और मरे तो मरे…न आवाज में कंपन और न यह चिंता कि कहीं पिता दुनिया से न चले
जाएं.
जिस बेटे को उन के जीवन का मोह नहीं, उस
से रुपएपैसे की सहायता भी क्यों लेनी है…लेकिन इलाज के लिए रुपए तो चाहिए ही थे.
सौरभ ने एक छोटा सा प्लाट सस्ते दामों में शहर के बाहर खरीदा हुआ था. अब वह अच्छी
कीमत में बिक सकता था, लेकिन सौरभ यह सोच कर कि सत्यम उस पर अच्छा सा सुख-
सुविधापूर्ण घर बनाएगा, नहीं बेचना चाह रहे थे. फिर उस समय उन्होंने अपने एक परिचित से
कहा कि वह उस जमीन को खरीद ले और उसे इस समय रुपए दे दे. उस परिचित ने भी जमीन
सस्ती मिलती देख उन्हें रुपए दे दिए. उस समय उन्हें लगा, बेटे
के बजाय जमीन खरीदना शायद ज्यादा हितकर रहा,
जो इस मुसीबत में उन के काम आई.
इधर सौरभ के आपरेशन का दिन फिक्स हुआ, उधर
सत्यम अमेरिका के लिए उड़ गया. वहां से पिता का हालचाल जानने के लिए फोन आया तो उस
की आवाज में इस बात का कोई मलाल नहीं था कि वह अपने पिता के लिए कुछ नहीं कर पाया.
तब से 5 साल हो गए. सत्यम और उन का संपर्क लगभग खत्म सा हो गया था. उस
के फोन यदाकदा ही आते जो नितांत औपचारिक होते.
और अब जब मंदी की चपेट में आ कर सत्यम
की नौकरी छूट गई तो वह उन के पास आ रहा है. मुसीबत में इस असुविधापूर्ण, गंदे, छोटे
से फ्लैट की याद उसे अमेरिका जैसे शानोशौकत वाले देश में भी आखिर आ ही गई, जहां
वह लौट कर जा सकता है. अब कैसे रहेंगे सत्यम,
नीमा व उन के बच्चे यहां…कैसे
बनाएगी नीमा इस किचन में चाय…जहां पानी जब आए तब काम करना पड़ता है.
मैं यही सोच रही थी. न जाने कब तक छत पर
नजरें गड़ाए मैं अपने विचारों के आरोहअवरोह में चढ़तीउतरती रही और सोचतेसोचते कब
नींद के आगोश में चली गई, पता ही नहीं चला.
सुबह नींद खुली तो सूरज छत पर चढ़ आया
था. सौरभ बेखबर सो रहे थे. मैं ने उन का माथा छू कर देखा और इत्मीनान से मुसकरा
दी. जब से सौरभ को दिल का दौरा पड़ा है तब से उन की तरफ से मन में अनजाना सा डर समाया
रहता है कि कहीं सौरभ मुझे छोड़ कर चुपचाप चले न जाएं. क्या होगा मेरा? मैं
सौरभ के बिना नहीं जी सकती और जीऊंगी भी तो किस के सहारे.
मैं हाथमुंह धो कर चाय बना कर ले आई.
सौरभ को जगाया और दोनों मिल कर चाय पीने लगे. जिंदगी की सांझ में कैसे पतिपत्नी
दोनों अकेले रह जाते हैं, यही तो समय का चक्कर है. इसी जगह पर कभी हमारे मातापिता थे, अब
हम हैं और कल हमारी संतान होगी. सीमित होते परिवार,
कम होते बच्चे…पीढ़ी
दर पीढ़ी अकेलेपन को बढ़ाए दे रही है. हर नई पीढ़ी,
पिछली पीढ़ी से ज्यादा और जल्दी अकेली
हो रही है, क्योंकि बच्चे पढ़ाई-
लिखाई के कारण घर से जल्दी दूर चले जाते
हैं. पर इस का एहसास युवावस्था में नहीं होता.
मन में बेटे के परिवार के आने का कोई
उत्साह नहीं था. फिर भी न चाहते हुए भी,
उन का कमरा ठीक करने लगी. बच्चे भी आ
रहे हैं…कैसे रहेंगे, कितने दिन रहेंगे.. मैं आगे का कुछ भी
सोचना नहीं चाहती थी. हां, इतना पक्का था कि 6
लोगों का खर्च सौरभ की छोटी सी पेंशन से
नहीं चल सकता था…तब क्या होगा.
रात को सत्यम का फोन आया कि वह परसों की
फ्लाइट से आ रहा है. फोन मैं ने ही उठाया. मैं ने निर्विकार भाव से उस की बात सुन
कर फोन रख दिया. दूसरे दिन मैं ने सौरभ से बैंक से कुछ रुपए लाने के लिए कहा.
‘‘नहीं हैं मेरे पास रुपए…’’
सौरभ बिफर गए.
‘‘सौरभ प्लीज, अभी तो थोड़ाबहुत दे दो…सत्यम
भी यहां आ कर चुप तो नहीं बैठेगा. कुछ तो करेगा,’’
मैं अनुनय करने लगी.
सौरभ चुप हो गए. मेरी कातरता, व्याकुलता
सौरभ कभी नहीं देख पाते. हमेशा भरापूरा ही देखना चाहते हैं. उन्होंने बैंक से रुपए
ला कर मेरे हाथ में रख दिए.
‘‘सौरभ, तुम फिक्र मत करो,
मैं थोड़े ही दिन में सत्यम को बता
दूंगी कि हम उस के परिवार का खर्च नहीं उठा सकते. घर है…जब
तक चाहे बसेरा कर ले लेकिन अपने परिवार की जिम्मेदारी खुद उठाए. हम से कोई उम्मीद
न रखे,’’ मेरे स्वर की दृढ़ता से सौरभ थोड़ाबहुत आश्वस्त हो गए.
अगले दिन सत्यम को आना था. फ्लाइट के
आने का समय हो गया था. हम एअरपोर्ट नहीं गए. अटैचियों से लदाफंदा सत्यम परिवार
सहित टैक्सी से खुद ही घर आ गया. सत्यम व बच्चे जब आंखों के सामने आए तो पलभर के
लिए मेरे ही नहीं, सौरभ की आंखों में भी ममता की चमक आ गई. 5 साल
बाद देख रहे थे सब को. सत्यम व नीमा के मुरझाए चेहरे देख कर दिल को धक्का सा लगा.
सत्यम ने पापा के पैर छुए और फिर मेरे पैर छू कर मेरे गले लग गया. साफ लगा, मेरे
गले लगते हुए जैसे उस की आंखों से आंसू बहना ही चाहते हैं, आखिर
राजपाट गंवा कर आ रहा था.
मां सिर्फ हाड़मांस का बना हुआ शरीर ही
तो नहीं है…मां भावनाओं का असीम समंदर भी है…एक
महीन सा अदृश्य धागा मां से संतान का कहां और कैसे बंधा रहता है, कोई
नहीं समझ सकता…एक शीतल छाया जो तुम से कोई भी सवालजवाब नहीं करती…तुम्हारी
कमियों के बारे में बात नहीं करती…
हमेशा तुम्हारी खूबियां ही गिनाती है और
कमियों को अपने अंदर आत्मसात कर लेती है…अपने किए का बदला नहीं चाहती…हर
कष्ट के क्षण में मुंह से मां का नाम निकलता है और दिमाग में मां के होने का एहसास
होता है…कष्ट के समय कहीं और आसरा मिले न मिले पर वह शीतल छाया तुम्हें
आसरा जरूर देती है… सुख में कैसे भूल जाते हो उस को. लेकिन जड़ें ही खोखली हों तो
हलके आंधीतूफान में भी बड़ेबड़े दरख्त उखड़ जाते हैं.
मेरे गले से लगा हुआ सत्यम शायद यही
सबकुछ सोचता, अपने आंसुओं को अंदर ही अंदर पीने की कोशिश कर रहा था, लेकिन
मैं ने अपना संतुलन डगमगाने नहीं दिया. सत्यम को भी एहसास होना चाहिए कि जब गहन
दुख व परेशानी के क्षणों में ‘अपने’
हाथ खींचते हैं तो जिंदगी कितनी बेगानी
लगती है. विश्वास नाम की चीज कैसे चूरचूर हो जाती है.
‘‘बैठो सत्यम…’’ उसे धीरे से अपने से अलग करती हुई मैं
बोली, ‘‘अपना सामान कमरे में रख दो…मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ कह
कर अपने मनोभावों को छिपाते हुए मैं किचन में चली गई. बच्चों ने प्रणाम किया तो
मैं ने उन के गाल थपथपा दिए. दिल छाती से लगाने को कर रहा था पर चाहते हुए भी कौन
सी अदृश्य शक्ति मुझे रोक रही थी. चाय बना कर लाई तो सत्यम व नीमा सामान कमरे में
रख चुके थे. नीमा ने मेरे हाथ से टे्र ले ली…शायद पहली बार.
वहीं डाइनिंग टेबल पर बैठ कर सब ने चाय
खत्म की. इतनी देर बैठ कर सौरभ ने जैसे मेजबान होने की औपचारिकता निभा ली थी, इसलिए
उठ कर अपने कमरे में चले गए. दोनों बच्चे भी थके थे,
सो वे भी कमरे में जा कर सो गए.
‘‘तुम दोनों भी आराम कर लो,
खाना बन जाएगा तो उठा दूंगी…क्या
खाओगे…’’
‘‘कुछ भी खा लेंगे…और ऐसे भी थके नहीं हैं…नीमा
खुद बना लेगी…आप बैठो.’’
मैं ने चौंक कर नीमा को देखा, उस
के चेहरे पर सत्यम की कही बात से सहमति का भाव दिखा. यह वही नीमा है जो मेरे इतने
असुविधापूर्ण किचन में चाय तक भी नहीं बना पाती थी,
खाना बनाना तो दूर की बात थी.
कहते हैं प्यार में बड़ी शक्ति होती है
पर शायद मेरे प्यार में इतनी शक्ति नहीं थी,
तभी तो नीमा को नहीं बदल पाई, लेकिन
आर्थिक मंदी ने उसे बदलने पर मजबूर कर दिया था. मेरे मना करने पर भी नीमा किचन में
चली गई. वह भी उस किचन में जिस में पहले कभी नीमा ने पैर भी न धरा था, उस
का भूगोल भला उसे क्या पता था. इसलिए मुझे किचन में जाना ही पड़ा.
सत्यम को आए हुए 2 दिन
हो गए थे. हमारे बीच छिटपुट बातें ही हो पाती थीं. हम दोनों का उन दोनों से बातें
करने का उत्साह मर गया था और वे दोनों भी शायद पहले के अपने बनाए गए घेरे में कैद
कसमसा रहे थे. सौरभ तो सामने ही बहुत कम पड़ते थे. पढ़ने के शौकीन सौरभ अकसर अपनी
किताबों में डूबे रहते. अलबत्ता बच्चे जरूर हमारे साथ जल्दी ही घुलमिल गए और हमें
भी उन का साथ अच्छा लगने लगा.
सत्यम बच्चों के दाखिले व अपनी नौकरी के
लिए लगातार कोशिश कर रहा था. अच्छे स्कूल में इस समय बच्चों का दाखिला मुश्किल हो
रहा था. अच्छे स्कूल में 2 बच्चों के खर्चे सत्यम कैसे उठा पाएगा, मैं
समझ नहीं पा रही थी. उस का परिवार अगर यहां रहता है तो ज्यादा से ज्यादा उसे
किराया ही तो नहीं देना पड़ेगा. नीमा उसी किचन में खाना बनाने की कोशिश कर रही थी, उसी
बदरंग से बाथरूम में कपड़े धो रही थी. हालांकि सुविधाओं की आदत होने के कारण सब के
चेहरे मुरझाए हुए थे.
सत्यम रोज ही अपना रिज्यूम ले कर किसी न
किसी कंपनी में जाता रहता. आखिर उसे एक कंपनी में नौकरी मिल गई. कंपनियों को भी इस
समय कुशल कर्मचारी कम तनख्वाह में हासिल हो रहे थे तो वे क्यों न इस का फायदा
उठाते. तनख्वाह बहुत ही कम थी.
‘‘सोचा भी न था मम्मी,
ऐसी बाबू जैसी तनख्वाह में कभी गुजारा
करना पड़ेगा,’’ सत्यम बोला.
दिल हुआ कहूं कि तेरे पिता ने तो ऐसी ही
तनख्वाह में गुजारा कर के तुझे इतने ऊंचे मुकाम पर पहुंचाया…तब
तू ने कभी नहीं सोचा…लेकिन उस के स्वर में उस के दिल की निराशा साफ झलक रही थी. मां
होने के नाते दिल में कसक हो आई.
‘‘ठीक हो जाएगा सबकुछ,
परेशान मत हो, सत्यम…मंदी
कोई हमेशा थोड़े ही रहने वाली है…एक न एक दिन तुम दोबारा अमेरिका चले
जाओगे…उसी तरह बड़ी कंपनी में नौकरी करोगे.’’
मेरी बात में सांत्वना तो थी ही पर उन
की स्वार्थपरता पर करारी चोट भी थी. मैं ने जता दिया था, जिस
दिन सबकुछ ठीक हो जाएगा तुम पहले की ही तरह हमें हमारे हाल पर छोड़ कर चले जाओगे.
सत्यम कुछ नहीं बोला, निरीह नजरों से मुझे देखने लगा. मानो कह रहा हो, कब
तक नाराज रहोगी. बच्चों का दाखिला भी उस ने दौड़भाग कर अच्छे स्कूल में करा दिया.
‘‘इस स्कूल की फीस तो काफी ज्यादा है सत्यम…इस
नौकरी में तू कैसे कर पाएगा?’’
‘‘बच्चों की पढ़ाई तो सब से ज्यादा जरूरी है मम्मी…उन
की पढ़ाई में विघ्न नहीं आना चाहिए. बच्चे पढ़ जाएंगे… अच्छे
निकल जाएंगे तो बाकी सबकुछ तो हो ही जाएगा.’’
वह आश्वस्त था…लगा
सौरभ ही जैसे बोल रहे हैं. हर पिता बच्चों का पालनपोषण करते हुए शायद यही भाषा
बोलता है…पर हर संतान यह भाषा नहीं बोलती,
जो इतने कठिन समय में सत्यम ने हम से
बोली थी. मेरा मन एकाएक कसैला हो गया. मैं उठ कर बालकनी में जा कर कुरसी पर बैठ
गई. भीषण गरमी के बाद बरसात होने को थी. कई दिनों से बादल आसमान में चहलकदमी कर
रहे थे, लेकिन बरस नहीं रहे थे. लेकिन आज तो जैसे कमर कस कर बरसने को
तैयार थे. मेरा मन भी पिछले कुछ दिनों से उमड़घुमड़ रहा था, पर
बदरी थी कि बरसती नहीं थी.
मन की कड़वाहट एकाएक बढ़ गई थी. 5 साल
पुराना बहुत कुछ याद आ रहा था. सत्यम के आने से पहले सोचा था कि उस को यह ताना
दूंगी…वह ताना दूंगी…
सौरभ ने भी बहुत कुछ कहने को सोच रखा था
पर क्या कर सकते हैं मातापिता ऐसा…वह भी जब बेटा अपनी जिंदगी के सब से
कठिन दौर से गुजर रहा हो.
एकाएक बाहर बूंदाबांदी शुरू हो गई. मैं
ने अपनी आंखों को छुआ तो वहां भी गीलापन था. बारिश हलकीहलकी हो कर तेज होने लगी और
मेरे आंसू भी बेबाक हो कर बहने लगे. मैं चुपचाप बरसते पानी पर निगाहें टिकाए अपने
आंसुओं को बहते हुए महसूस करती रही.
तभी अपने कंधे पर किसी का स्पर्श पा कर
मैं ने पीछे मुड़ कर देखा तो सत्यम खड़ा था…
चेहरे पर कई भाव लिए हुए… जिन
को शब्द दें तो शायद कई पन्ने भर जाएं. मैं ने चुपचाप वहां से नजरें हटा दीं. वह
पास पड़े छोटे से मूढ़े को खिसका कर मेरे पैरों के पास बैठ गया. कुछ देर तक हम
दोनों ही चुप बैठे रहे. मैं ने अपने आंसुओं को रोकने का प्रयास नहीं किया.
‘‘मम्मी, क्या मुझे इस समय बच्चों को इतने बड़े स्कूल में नहीं डालना
चाहिए था…मैं ने सोचा जो भी थोड़ीबहुत बचत है, उन
की पढ़ाई का तब तक का खर्चा निकल जाएगा…हम तो जैसेतैसे गुजरबसर कर ही लेंगे, जब
तक मंदी का समय निकलता है…क्या मैं ने ठीक नहीं किया,
मम्मी?’’
सत्यम ने शायद बातचीत का सूत्र यहीं से
थामना चाहा, ‘‘आखिर, पापा ने भी तो हमेशा मेरी पढ़ाईलिखाई पर अपनी हैसियत से बढ़ कर
खर्च किया.’’
सत्यम के इन शब्दों में बहुत कुछ था.
लज्जा, अफसोस…पिता के साथ किए व्यवहार से…व पिता के अथक प्रयासों व त्याग को
महसूस करना आदि.
‘‘तुम ने ठीक किया सत्यम,
आखिर सभी पिता यही तो करते हैं, लेकिन
अपने बच्चों को पालते हुए अपने बुढ़ापे को नहीं भूलना चाहिए. वह तो सभी पर आएगा.
संतान बुढ़ापे में तुम्हारा साथ दे न दे पर तुम्हारा बचाया पैसा ही तुम्हारे काम
आएगा. संतान जब दगा दे जाएगी… मंझधार में छोड़ कर नया आसमान तलाशने के
लिए उड़ जाएगी…तब कैसे लड़ोगे बुढ़ापे के अकेलेपन से. बीमारियों से, कदम
दर कदम, नजदीक आती मृत्यु की आहट से…कैसे?
सत्यम…आखिर कैसे…’’ बोलतेबोलते
मेरा स्वर व मेरी आंखें दोनों ही आद्र हो गए थे.
मेरे इतना बोलने में कई सालों का मानसिक
संघर्ष था. पति की बीमारी के समय जीवन से लड़ने की उन की बेचारगी की कशमकश थी.
अपनी दोनों की बिलकुल अकेली सी बीती जा रही जिंदगी का अवसाद था और शायद वह सबकुछ
भी जो मैं सत्यम को जताना चाहती थी…कि जो कुछ उस ने हमारे साथ किया अगर इन
क्षणों में हम उस के साथ करें…हर मातापिता अपनी संतान से कहना चाहते
हैं कि जो हमारा आज है वही उन का कल है…लेकिन आज को देख कर कोई कल के बारे में
कहां सोचता है, बल्कि कल के आने पर आज को याद करता है.
सत्यम थोड़ी देर तक विचारशून्य सा बैठा
रहा, फिर एकाएक प्रायश्चित करते हुए स्वर में बोला, ‘‘मम्मी, मुझे
माफ नहीं करोगी क्या?’’
मैं ने सत्यम की तरफ देखा, वह
हक से माफी भी नहीं मांग पा रहा था क्योंकि वह समझ रहा था कि वह माफी का भी हकदार
नहीं है.
सत्यम ने मेरे घुटनों पर सिर रख दिया, ‘‘मम्मी, मेरे
किए की सजा मुझे मिल रही है. मैं जानता हूं कि मुझे माफ करना आप के व पापा के लिए
इतना सरल नहीं है फिर भी धीरेधीरे कोशिश करो मम्मी…अपने बेटे को माफ कर दो. अब कभी आप
दोनों को छोड़ कर नहीं जाऊंगा…मुझे यहीं अच्छी नौकरी मिल जाएगी…आप
दोनों का बुढ़ापा अब अकेले नहीं बीतेगा…मैं हूं आप का सहारा…अपनी
जड़ों को अब और खोखला नहीं होने दूंगा. जो बीत गया मैं उसे वापस तो नहीं लौटा सकता
पर अब अपनी गलतियों को सुधारूंगा,’’ कह कर सत्यम ने अपनी बांहें मेरे
इर्दगिर्द लपेट लीं जैसे वह बचपन में करता था.
‘‘मुझे भी माफ कर दो,
मम्मी,’’
नीमा भी सत्यम की बगल में बैठती हुई
बोली, ‘‘हमें अपने किए पर बहुत पछतावा है…पापा
से भी कहिए कि वह हम दोनों को माफ कर दें. हमारा कृत्य माफी के लायक तो नहीं पर
फिर भी हमें अपनी गलतियां सुधारने का मौका दीजिए,’’
कह कर नीमा ने मेरे पैर पकड़ लिए.
दोनों बच्चे इस तरह से मेरे पैरों के
पास बैठे थे. सोचा था अब तो जीवन यों ही अकेला व बेगाना सा निकल जाएगा… बच्चे
हमें कभी नहीं समझ पाएंगे पर हमारा प्यार जो उन्हें नहीं समझा पाया वह कठिन
परिस्थितियां समझा गईं.
‘‘बस करो सत्यम, जो हो गया उसे हम तो भूल भी चुके थे. जब
तुम सामने आए तो सबकुछ याद आ गया. पर माफी मुझ से नहीं अपने पापा से मांगो, बेटा… मां
का हृदय तो बच्चों के गलती करने से पहले ही उन्हें क्षमा कर देता है,’’ कह
कर मैं स्नेह से दोनों का सिर सहलाने लगी.
सत्यम अपनी भूल सुधारने के लिए मेरे
पैरों से लिपटा हुआ था.
‘‘जाओ सत्यम, पापा अपने कमरे में हैं. दोनों उन के
दोबारा खुरचे घावों पर मरहम लगा आओ…मुझे विश्वास है कि उन की नाराजगी भी
अधिक नहीं टिक पाएगी.’’
सत्यम व नीमा हमारे कमरे की तरफ चले गए.
अकस्मात मेरा मन जैसे परम संतोष से भर गया था. बाहर बारिश पूरी तरह रुक गई थी, हलकी
शीतल लालिमा चारों तरफ फैल गई थी जिस में सबकुछ प्रकाशमय हो रहा था.
$$ J.P. BABBU
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