निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।




वह अपने समय का एक मशहूर मूर्तिकार था। उसके काम की सारे राज्य में प्रशंसा थी। पूरे राज्य में उसके समान मूर्ति बनाने वाला कोई नहीं था। उसकी मूर्तियाँ ऐसी जीवन्त होती थीं कि कई बार उन्हें देखकर ये धोखा हो जाता था कि यह मूर्ति है या कोई जिन्दा इन्सान। अपने काम से उसने बहुत धन व यश प्राप्त किया। हर ओर यही चर्चा होती कि धनराज के हाथों में साक्षात कला की देवी वास करती हैं।

उसका एक पुत्र था जिसका नाम शिवराज था। धनराज ने वृद्ध होते-होते शिवराज को शिल्पकला के सभी गुर और बारीकियाँ सिखा दीं। शिवराज भी बहुत कुशाग्र बुद्धि का नवयुवक था। उसने अपने पिता से मूर्तिकला की सारी शिक्षा मन लगाकर सीखी थी। अपनी लगन और मेहनत से उसने शिल्प के प्रायः सभी रहस्यों को आत्मसात् कर लिया था। इसी का परिणाम था कि थोड़े समय में ही उसने सम्पूर्ण राज्य में ही नहीं वरन् पूरे देश में अपने पिता से भी अधिक नाम, धन और यश प्राप्त कर लिया।

एक बार शिवराज ने अपने राज्य के महाराजा की मूर्ति बनाई। वह इतनी सुन्दर और जीवन्त थी कि जब राजा खुद उस मूर्ति के पास खड़ा हुआ तो औरों के लिए यह जानना मुश्किल हो गया कि कौन-सी मूर्ति है और कौन-सा राजा है। राजा स्वयं भी मूर्ति देखकर आश्चर्यचकित था। उसने उसकी कला से प्रभावित होकर उसे बहुत धन और सम्मान दिया।

वहाँ मौजूद उसके पिता ने भी अपने बेटे के हाथों बनाई उस मूर्ति को गौर से देखा। उसकी अनुभवी आँखों से उस मूर्ति में रह गयी एक त्रुटि छुपी नहीं रह सकी। राजमहल से लौटते समय उसने मूर्ति में रह गयी उस त्रुटि की तरफ अपने बेटे का ध्यान दिलवाया। शिवराज को यह बात बहुत बुरी लगी। उसे हमेशा ही अपने पिता की ये बात बुरी लगती थी। वह जब भी कोई मूर्ति बनाता तो उसके पिता उसमें कोई-न-कोई त्रुटि निकाल देते थे। हालाँकि शिवराज अपने पिता को जवाब में कुछ नहीं कहता था, मगर मन ही मन वह दुखी रहता था।

एक दिन उसने अपने मन में ये बात तय कर ली कि अब वो एक ऐसी मूर्ति बनाएगा, जिसमें उसके पिता कोई त्रुटि नहीं निकाल पाएँगे। काफी सोच-समझकर उसने इस काम के लिए एक योजना तैयार की।

योजना के अनुसार उसने अपने पिता से कहा कि उसे अपने किसी विशेष कार्य के लिए कुछ दिनों के लिए राज्य से बाहर जाना है। यह बहाना बनाकर वह अपने गाँव से चल दिया। गाँव से कुछ मील की दूरी पर एक पहाड़ था, जिसमें एक गुफा थी। शिवराज कुछ दिनों के लिए उस गुफा में गया।

लगातार छह महीने की मेहनत के बाद उसने माँ सरस्वती की एक शानदार और सुन्दर मूर्ति बनाई। इस मूर्ति को बनाने में उसने अपना तन-मन-धन और सारी कल्पना-शक्ति लगा दी थी। उसे इस बात का पूरा विश्वास हो गया कि अब उसके पिता इस मूर्ति में कोई त्रुटि नहीं निकाल पाएँगे। फिर उसने अपने एक मित्र की सहायता से गाँव में यह अफवाह फैला दी कि उसके मित्र को सपने में माँ सरस्वती ने दर्शन देकर यह कहा है कि पहाड़ की गुफा में उनकी एक भव्य मूर्ति है।

यह बात सुनकर सारा गाँव पहाड़ की उस गुफा में पहुँच गया। सभी लोग सुन्दर और भव्य मूर्ति को देखकर अचम्भित रह गए। गाँव वाले तो क्या स्वयं धनराज भी मूर्तिकला के इस बेजोड़ नमूने से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। उसकी प्रशंसा में उनके मुँह से निकल गया, ये है महान कला, किसी मूर्तिकार के जीवन की सर्वश्रेष्ठ कलाकृति, वो कलाकार धन्य है, जिसने ये मूर्ति बनाई है।

पिता से अपनी कला की ऐसी जबरदस्त तारीफ सुनकर शिवराज गदगद हो गया। गर्व से उसने अपने पिता को बताया कि वही इस बेजोड़ मूर्ति को बनाने वाला मूर्तिकार है। पुत्र से यह जानकर धनराज को खुशी हुई, मगर कुछ पल बाद ही वो उदास हो गए। अचानक पिता को यों उदास होता देखकर शिवराज ने उनसे उनकी उदासी का कारण पूछा।

धनराज ने कहा, पुत्र! मैं इस बात से बेहद खुश हूँ कि ये तुम्हारे हाथों से बनी सर्वश्रेष्ठ कलाकृति है। मगर यह सोचकर उदास हूँ कि ये तुम्हारे जीवन की अन्तिम सर्वश्रेष्ठ कलाकृति है। अब शायद ही आगे तुम इससे बेहतर मूर्ति बना सको। शिवराज ने पिता से पूछा कि वे ऐसा क्यों कह रहे हैं?

तब धनराज ने कहा, पुत्र तुम हमेशा से एक अच्छे मूर्तिकार रहे हो और तुमने हमेशा अच्छी मूर्तियाँ बनायी हैं। मगर मैं तुम्हारी मूर्तियों में हर बार कोई-न-कोई गलती इस लिए निकालता रहा हूँ कि कहीं तुम अपनी कला से सन्तुष्ट नहीं हो जाओ और तुम्हारा निरन्तर विकास रुक नहीं जाए।

मगर दुःख मुझे इस बात का है कि तुम मेरी भावना को समझ नहीं पाए, बल्कि दुःखी होते रहे, खीझते रहे, अपने आप को अपमानित महसूस करते रहे। तुम्हारी यह कलाकृति तुम्हारी उसी खीझ का परिणाम है और तुम इस कृति से सन्तुष्ट भी हो। पुत्र किसी भी साधक के जीवन में वो दिन उसकी साधना की मृत्यु का दिन होता है, जिस दिन वो स्वयं को निर्दोष एवं पूर्ण समझ लेता है। सतत् उन्नति एवं विकास के लिए ही साधु-सन्तों ने ‘निन्दक नियरे राखिए’ का सूत्र सुझाया है।

इतना कहकर धनराज वहाँ से चल दिया। मगर शिवराज उसी जगह पर मूर्तिवत् खड़ा रह गया। शायद अब उसे निन्दक नियरे राखिए सूत्र की महत्ता का बोध हो रहा था।

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