प्रेम-विज्ञान




वस्तुतः अनुभव से कहे तो विशिष्ट बोध केवल प्रेम मात्र है । जिसे बोधगम्य स्वीकार ही नहीँ किया जा सकता ।
जीवन इतना विचित्र है कि गणित और तर्क निवृति से पूर्व प्रेम को प्रेम मानता ही नही ।
अनुभव से कह रहा हूँ , मैंने पाया सारा संसार प्रेम को कोई विज्ञान समझता है और कोई वैज्ञानिक के पास प्रेम पहेलियों का हल ।
सच कहूं तो तत्व चिन्तन प्रेम का विपरीत रूप है ।
और सच कहूं तो फूलों से बातें करती तितलियो की बातें सुन कर मुस्कुराये बिना प्रेम हुआ यह प्रकट होता ही नहीँ ।
प्रेम पागल है , सिस्टमैटिक नहीँ है । दायरों में होता ही नहीँ । दीवारों सँग अब दुनिया समन्दर में उतरने लगी है ।
जीवन में प्रेम प्रकट होने पर आँख सुनने लगती है । कान देखने लगते है । होंठ खुशबूं पीने लगते है । नाक स्पर्शानुभूति में डूब जाता है । और मन । मन बेचारा अमनिया हो जाता है
अर्थात ... बेदिल सी उल्फ़ते मेरे अंदर कोई सागर छोड़ गया ,हाय कैसा पहाड़ बना हूँ मैं । पिघल भी रहा हूँ तो हल्के हल्के ।
मन मौन सा ऐसा हो जाता है कि अब उसे कुछ नही चाहिये । जो मन ठहरता न था , वो कही किसकता नहीँ प्रेम होने पर । थिर सा वहीँ । मौन । निःशब्द । मन जो सारा संसार मांगता था , हवा की छूअन भी उसे गवारा नही होती प्रेम होने पर ।
मन मन के समस्त गुण - दोष खो चुका होता है प्रेम होने पर , फिर कुछ नही चाहिये ।
खोजिये उसे जिसे कुछ नहीँ चाहिये । और कैसे भी छु लीजिये । क्योंकि वह ही प्रेमी है ।
इंद्रिया तरीके से काम करें तो काहे का प्रेम ।
परन्तु प्रेम का यह पागलपन महज पागलपन नही है ।
सच यह है कि सच में आँखे सुनने लगती है , पीने लगती है । हर इंद्रिय जीने लगती है अपना संसार। जिह्वा से रस सरक सरक रुदन बहता है । और होंठो से मीठी सी हवा हो बाँसुरी में प्राण बन बहने लगता है । अब तक आप सोचे आँख ही अश्रु गिराती है तो हुआ कहाँ प्रेम। प्रेम की कोई सीमा नहीँ । बोध का उद्गम प्रेम है , प्रेम का बोध सम्भव ही नहीँ ।
भावदेह यह देह यही विशेषता रखती है यहां हर इंद्रिय सम्पूर्ण रस को पीती भी है लुटाती भी है । प्रेम में प्रियतम का नाम इतना निज हो जाता है कि उस नाम का सम्पूर्ण सुख सागर बन हृदय में बहने लगता है । रसिक जानते है लोम विलोम प्रतिलोम है प्रेम । प्रेम विलास विवर्त की स्थिति प्रेम की कन्दरा का प्रवेश है । अर्थात तेरा नाम मेरा हो गया कब से । मेरा नाम खो गया तुझमें कब से ???
प्रेम और पाखण्ड बाहर से दीखते एक से पर इनकी अनुभूति और परिणाम विपरीत है । प्रेम में प्रियतम हिय का सुख ही कारण । पाखण्ड में प्रियतम से निज सुख ही कारण ।
प्रेमी तो वह जो अपना चित्र ,अपना जीवन बुझा चूका हो । और महक रहा हो जैसे गुलाब ना जाने किससे मिल आया , उसकी खुशबूं बदल जाये । ज़िन्दगी में मिली हर तस्वीर से उसकी आँखे क्यों और महकती है ।
क्या मेरी साँसे तुझे जीती है ।

छोड़िये पागलपन । चलिये विधि को भर ले । प्रेमी तो वह है जो समन्दर से अपने पात्र में कोई रत्न नही , जल भर कर लाया हो । समन्दर में गोता लगाकर रत्न खोदना तो कामना की पराकाष्ठा है प्रेम कतई नही ।

प्रेम को सुनना सम्भव नही , स्वयं से मुक्त हुए बिना । प्रेम में डूबना सम्भव ही नही , स्वयं को देह पात्र से निकाल साधे बिना । यानी जितना कठिन जल को पात्र से बाहर रखना है उतना ही कठिन देह में प्रेम रखना है । देह कारण से है , प्रेम अकारण से है । देह की एक दशा , दिशा , जीवन है ।
प्रेम तो श्मशान को जीकर किसी मधुशाला में रात भर प्रेममदिरा से की हुई बातें है ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें