बाढ़,जेम्स प्रिंसेप और बनारस के शाही नाले की कथा...!" सुबह-सुबह अस्सी घाट के पुरनिये आठ कचौड़ी,तेल में तर तीन प्लेट कोहड़ा की तरकारी,दूई पाव जलेबी,सौ ग्राम दही के बाद जब बाबा बूटी की छानते हैं,तब जाकर तीन किलोमीटर लंबी डकार उतपन्न होती है।बाकी दुनिया का पता नहीं लेकिन बनारस में इस क्रिया को,"मिज़ाज बन गयल भाय !" कहा जाता है।

"बाढ़,जेम्स प्रिंसेप और बनारस के शाही नाले की कथा...!" 

सुबह-सुबह अस्सी घाट के पुरनिये आठ कचौड़ी,तेल में तर तीन प्लेट कोहड़ा की तरकारी,दूई पाव जलेबी,सौ ग्राम दही के बाद जब बाबा बूटी की छानते हैं,तब जाकर तीन किलोमीटर लंबी डकार उतपन्न होती है।

बाकी दुनिया का पता नहीं लेकिन बनारस में इस क्रिया को,"मिज़ाज बन गयल भाय !" कहा जाता है। 

लेकिन बात ये है कि जब भी कोई चराचर जगत का जीव किसी बनारसी के इस मिज़ाज बनने के क्रम में बाधा उतपन्न करता है तो बनारसी पिच्च से पान थूककर एक आशीर्वचन बोलता है..."

" रे सारे! जाके शाही नाला में डूब जोs !"

अब क्या है कि पहली बार नाले में डूबाने वाली बात सुनकर मुझे ज़रा सी हैरानी हुई थी।

कोई बनारस में ये कहे कि "जाके गंगा जी में डूब जो !" ये बात तो समझ में आती है लेकिन मेरे लिए हैरान करनें वाली बात थी कि यहाँ कोई किसी को नाले में क्यों डूबाना चाहता है ? 

लेकिन गुरू,थोड़ी हैरानी तो होनी ही चाहिए।बनारस में हैरानी-परेशानी शिव जी का बेल पत्र है और मान लीजिए बनारस कोई स्त्री है,तो ये गालियाँ उसकी चूड़ी,टिकुली और सेनुर हैं। तभी तो बनारसी वाक्य विन्यास बिना गालियों के पूरे नहीं होते हैं। 

लेकिन आज गालियों का महिमा मंडन करना मेरा उद्देश्य नहीं है। बहुत जगह किया गया है। आगे भी किया जाता रहेगा।

मैं तो बस ये बताना चाहता हूं कि मुझे कई सालों तक शाही नाले में डूबाने की बात व्यक्तिगत रूप से हज़म नहीं हुई थी।

और जब हज़म नहीं हुई,तब मेरे अति जिज्ञासु मन नें एक दिन बाबा विश्वनाथ औऱ माई गंगा का नाम लेकर बनारस के इतिहास के कुछ पुराने पन्ने पलटने शुरु किये ! और जैसे-जैसे पलटते गए,वैसे-वैसे चौंकते चले गए। 

कई बार "धप्प !" से एक नई खिड़की खुली और मेरे मन- मिज़ाज के इस शहर का ज़िंदा इतिहास,किसी भटके कबूतर की तरह फड़फड़ाने लगा।

और एक दिन उसी पन्ने पर रुक गया,जहां शाही सुरंग से शाही नाला बनने की कहानी लिखी थी।

उस दिन कई राज़ खुले थे,कई दफ़न हो गए थे। लेकिन कुछ ऐसा था,जिसने मेरे कलाकार मन को बड़ा आकर्षित किया।

आज भयंकर टाइफाइड से उबरने के महीने दिन बाद लिखने बैठा हूँ,तो सोच रहा हूँ कि उस आकर्षण की एक प्रासंगिक घटना आपसे साझा करूँ,ये ज़रूरी है।

लेकिन उस घटना से पहले आपको ये बताऊँ कि किसी ज़मानें में मुगलों नें बनारस में एक सुरंग बनवाया था।

सुरंग बनवाने के पीछे उनकी कौन सी मंशा थी,ये बताना मेरे लिए ज़्यादा जरूरी नहीं। जितना ये बताना ज़रूरी है कि उस सुरंग का नाम 'शाही सुरंग' था।

यह 'शाही सुरंग' बनारस के अस्सी,भेलूपुर,कमच्छा,
गुरुबाग,गिरिजाघर,बेनियाबाग,चौक,पक्का महाल, मछोदरी होते हुए कोनिया तक आती-जाती थी। 

लगभग चौबीस किलोमीटर की ये सुरंग इतनी चौड़ी थी कि उसके भीतर दो-दो हाथी एक साथ चल सकते थे। यानी बिना बनारस के कानों में ख़बर हुए बहुत कुछ भीतर ही भीतर आर-पार किया जा सकता था।

लेकिन वक्त का पहिया घूमा। मुगलों के दिल्ली सल्तनत का सूरज डूबने लगा। जगह-जगह यूनियन जैक लहराने लगे। अंग्रेजों का राज आ गया।

भारत की ये सांस्कृतिक राजधानी 'काशी' उस प्रभाव से ख़ुद को कहाँ बचा पाई...?

कहतें हैं वो तारीख़ थी 26 नवंबर 1820 ! काशी का सौभाग्य की दुर्भाग्य ?

ठीक इसी दिन ईस्ट इंडिया कम्पनी ने महज़ बाइस साल के एक युवा अंग्रेज़ को बनारस का टकसाल अधिकारी नियुक्त कर दिया।  

बनारस में हुआ हल्ला...बाप रे ! बाइस साल का लौंडा, अधिकारी...!

लेकिन उससे बड़ी बात हुई कि उस घुघराले बालों वाले युवा अधिकारी ने जैसे ही बनारस में कदम रखा,वो बनारस पर मुग्ध हो गया ! मानों अरसे बाद वो किसी शहर को नहीं,अपनी प्रेयसी को देख रहा हो।
 
इतना मुग्ध हुआ कि उसकी सुबह अस्सी घाट पर चित्रकला बनाते हुए बीत जाती थी और दोपहर टकसाल में आधुनिक बनारस की कल्पना करने में ! 

शाम को वो काम-धाम निपटाकर घोड़े पर सवार होता और जैसे ही चौक की तरफ़ जाता..चौक की गलियों में कमरे की खिड़कियाँ धड़धड़ाते हुए खुल जातीं....और नाँचने-गाने वाली बाई जी लोगों के कमरे से एक साथ आवाज़ आती..!

"अरे! देखो-देखो जेम्स प्रिंसेप आया..."

फ़िर तो समूचे चौक में सारंगी,तबला, सितार,घुंघरू की झंकारें गूँजने लगतीं !

कुछ ही देर में आमद,परन,सलामी परन,तराना,लग्गी-लड़ी,ठुमरी और ख़्याल के साथ बनारस घराने के पेशकार में चौक रँग जाता और जेम्स प्रिंसेप कब खो जाता,उसे ख़ुद समझ नहीं आता था।

वक़्त बीतता गया...प्रिंसेप का काशी प्रेम बढ़ता गया। उसने यहाँ रहकर संगीत,साहित्य,कला का प्रगाढ़ अध्ययन किया । 

वो सिर्फ़ आर्किटेक्ट ही नहीं वरन वैज्ञानिक ,आविष्कारक होने के साथ साथ हिन्दुस्तानी शास्त्रीय  संगीत का अद्भुत जानकार  था । प्रिन्सेप ने ही  वजन मापने की मशीन बनाई,जिससे धूल का भी वजन लिया जा सकता था।

यहाँ तक कि उसने वापरेटोमीटर,फ्लुवियोमीटर ,पैरोमीटर,एसेबैलेंस का आविष्कार किया ।प्रिन्सेप नें ही पहली बार बनारस में मिले कुछ यूनानी सिक्कों को देखकर एक लंबा शोध किया और बताया कि इनमें ब्राह्मी भाषा का प्रयोग किया गया है। 

लेकिन एक वक़्त ऐसा आया कि उसे एहसास हुआ कि जिस काशी नें मुझे इतना समृद्ध किया..उसे क्यों न कुछ देकर लौटा जाए !

तब प्रिंसेप के मनो मस्तिष्क में एक नए बनारस की कल्पना नें जन्म लिया..एक ऐसा बनारस जो प्राचीन होने के साथ एक आधुनिक शहर हो...! 

इसके लिए उसने सबसे पहले बनारस की जनगणना करवाई। सबसे पहली बनारस की थ्री डी पेंटिंग बनाई। और जब सीवर सिस्टम,पेयजल को डिजायन करने लगा..तो उसके सामने बड़ी समस्या उतपन्न हुई... कि इसे कैसे बनाया जाए..उसने बहुत अध्ययन किया।

और बाबा विश्वनाथ की कृपा...वरदान के रूप में मुगलों वाला वही शाही सुरंग उसके सामने खुल गई !

प्रिंसेप नें झट से बनारस का सीवर सिस्टम डिजायन कर दिया...और शाही सुरंग को तोड़-ताड़कर,कुछ नया जोड़-जाड़कर समूचे बनारस का शाही नाला बना दिया।

उस समय शाही नाले को लाखौरी ईंट और बरी मसाला से बनाया गया। जेम्स प्रिंसेप की कल्पना नें ठीक 1827 में जाकर मूर्त रूप लिया।

जब काम पूरा हुआ तो पूरे बनारस में प्रिंसेप का सम्मान हुआ,उसको फूल मालाओं से लाद दिया गया। यहां तक कि कुछ किसानों नें तो ख़ुश होकर उसे अपनी जमीनें तक दे दीं..

लेकिन वो फक्कड़ स्वभाव का कलाकार आदमी था.. उसे भौतिकता लुभाती नहीं थी।

उसे जब जमीन मिली तो उसे किसानों और व्यापारियों की चिंता सताने लगी। और जब चिंता सताने लगी तो उसनें झट से विश्वेश्वर गंज मंडी बनवाना शुरू किया जो आज भी बनारस की सबसे बड़ी मंडी है।

न जानें कितनी किताबें कहतीं हैं कि प्रिंसेप लगभग दस साल तक बनारस रहा ! वो इतिहास के कुछ अद्भुत लोगों में से एक था.... वो लुटियन का बाप था लेकिन अफ़सोस की उसके हिस्से में दिल्ली नहीं, बनारस था।

उसने सिर्फ़ बनारस ही नहीं वरन समूचे पूर्वांचल में कई काम किये..जिनमें यूपी-बिहार को जोड़ने वाली कर्मनाशा पुल का निर्माण भी शामिल है।

उसनें दर्जनों किताबें लिखीं ! जिसने पूरी दुनिया के सैलानियों, कलाकारों,
आर्टिटेक्टों को बनारस और हिंदुस्तान की संस्कृति के प्रति आकर्षित किया। जेम्स को पढ़कर दुनिया भर के लोग बनारस की तरफ़ खींचे चले आए !

आज़ भी उसकी लिखी विश्व प्रसिद्ध क़िताब 'Benares Illustrated' बनारस को समझने के लिए किसी स्कूल से कम नहीं है।

लेकिन नियति को कुछ और मंजूर था... प्रिंसेप की मृत्यु महज़ इकतालीस साल की उम्र में हो गई।

प्रिंसेप नें ख़ुद को इतिहास की किताबों में दर्ज़ कराके दुनिया को अलविदा कह दिया। आज भी हिमालय में उसका नाम का प्रिंसेपिया पौधा उगता है।

लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि आज से दो सौ साल पहले जो पौधा उसने बनारस में उगाया था वो आज भी शाही नाले के रुप में समूचे बनारस की सीवर व्यवस्था को ढो रहा है।

आज दो सौ साल बाद भी बनारस की सीवर व्यवस्था उसी जेम्स प्रिंसेप के शाही नाले के भरोसे है।

दो सौ सालों में तरक़्क़ी की बात तो दूर ! आपको जानकर दुःख होगा कि 2016 तक उस नाले की सुध-बुध तक नहीं ली गई थी। 

जब नाले की सुध लेने की पहल शुरू हुई तो उसकी सफाई का काम जापान की कम्पनी "जायका" को दिया गया। 

जायका नें जब काम शुरू किया तो उसे पता चला कि वाराणसी नगर निगम के पास तो शाही नाले का नक्शा ही नहीं है। अब इसकी सफ़ाई और मरम्मत का काम कैसे शुरु होगा... ?

दुर्भाग्य है ! आज तक शाही नाले का नक्शा तो दूर उसका आदि अंत मिल नहीं पाया है। पिछले तीन साल से बेनियाबाग में जायका ने मोटे-मोटे लोहे के पाइप लगाकर छोड़ रखा है। सफ़ाई हो रही है। 

कई बार सफ़ाई की आख़री डेट आगे बढ़ी लेकिन आज तक काम पूरा नहीं हो पाया है। 

जल निगम के इंजीनियर और आर्टिटेक्ट हैरान हैं कि जब ये बनाया गया तब बनारस की आबादी महज़ एक लाख अस्सी हज़ार थी। आज करोड़ो की आबादी है,दो सौ साल में उसका नक्शा हम न बना सके,न खोज सके लेकिन नाला आज भी ये कैसे काम कर रहा है, ये शोध का विषय नहीं है ?

अब उसके बारे में शोध शुरू हुआ है।

आज बड़े-बड़े इंजीनियर जेम्स प्रिंसेप की दूरदर्शिता को नमन कर रहें हैं। जापानी इंजीनियर कह रहे हैं कि इस नाले की ठीक से सफ़ाई और मरम्मत हो जाए तो आने वाले पचास सालों तक ये पूरे बनारस की सीवर व्यवस्था को ठीक रखेगा।

लेकिन धन्य है हमारा सिस्टम उसके पास शाही नाले का नक्शा ही नहीं है। क्या करेंगे ?

आज तो बनारस में चालीस-पचास हज़ार करोड़ की योजनाएं चल रही हैं। दो-दो,चार-चार हॉस्पिटल बनें,रिंग रोड,फ्लाई ओवर,ब्रिज का जाल बिछाया जा रहा है। 

लेकिन ये कहते मुझे दुःख होता है कि आज भी बनारस की सफ़ाई और सीवर व्यवस्था मुगलों और अंग्रेजों के जमाने से आगे नहीं बढ़ पाई है।

आज कूड़ा निस्तारण के प्लांट लगे तो हैं लेकिन एक भी अपना काम ठीक से नहीं कर रहें हैं।

शहर विकराल होता चला गया है लेकिन वाटर ड्रेनेज,कूड़ा निस्तारण की आधुनिक व्यवस्था हम आज तक नहीं कर सके हैं।

और ये सिर्फ़ बनारस ही नहीं, हर बड़े शहर का हाल है। 

आज हर शहर कूड़े के ढेर पर खड़े हैं।

जल निगम या सेतु निगम या फिर नगर निगम हर जगह ठीकेदारों और इंजीनियरों की लूट जारी है।

स्मार्ट सिटी की कल्पना महज़ कल्पना नहीं तो क्या है ? 

मैं एक अरसे से कहता आया हूँ कि सर इस देश में और ख़ासकर हिंदी बेल्ट में स्मार्ट सिटी और आदर्श ग्राम से पहले स्मार्ट सिटीजन और आदर्श ग्रामीण की जरूरत है।

यहाँ पुल और सीवर,वॉटर ड्रेनेज सब बन जाएगा। लेकिन हमें हर शहर को उसका एक जेम्स प्रिंसेप देना होगा..जिसको अपने शहर से,उसकी संस्कृति से और अपने काम से बेपनाह मोहब्बत हो। 

सिर्फ़ प्रतिभा नहीं,बल्कि विज़न और दूरदर्शिता हो। ऐसा नहीं कि यहाँ जेम्स प्रिन्सेपो की कमी है। यहाँ काबिल इंजीनियर नहीं हैं ?

नहीं ! कमी है तो बस वातावरण की है। कमी है उस माहौल से निकलने की जहां सारा निर्माण कमीशन खोरी और लेटलतीफी की भेंट चढ़ जाता है।

आज तो चार दिन की बारिश नें शहरीकरण के सारे दावे नेस्तनाबूद हो जा रहें हैं। लाखों की जनता नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त हो रही है। लेकिन जैसे-जैसे आबादी बढ़ेगी,तब क्या होगा ?

क्या होगा दस-बीस साल बाद ? 

इसलिए मैं कहता हूँ कि हम चाँद,मंगल पर पानी ज़रूर खोजें..ये हमारी उपलब्धि होगी..जिस पर हमें एक नागरिक के नाते हमेशा गर्व होगा। लेकिन उससे ज़्यादा गर्व तब होगा कि हम इन शहरों की स्वच्छता और सीवर को सुधार लें। इनको नारकीय बनाने से बचा लें..

जब धरती ही रहने लायक नहीं रहेगी तो हम चाँद,मंगल पर जाकर क्या करेंगे... ? ये सोचना जरूरी है। बाकी जो है सो हइये है। 

(जेम्स प्रिंसेप की बनाई काशी की पेंटिंग, उसकी किताब Benares Illustrated' से )


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