हाड़ी रानी का बलिदान :- 1680 ई. में जब मुगल फौज ने मुगल बादशाह औरंगज़ेब के नेतृत्व में मेवाड़ पर जगह-जगह आक्रमण किया, तो महाराणा राजसिंह के नेतृत्व में मेवाड़ी फौज ने भी मुकाबला किया। कहानी पूरी जरूर पढ़ें।

हाड़ी रानी का बलिदान :- 1680 ई. में जब मुगल फौज ने मुगल बादशाह औरंगज़ेब के नेतृत्व में मेवाड़ पर जगह-जगह आक्रमण किया, तो महाराणा राजसिंह के नेतृत्व में मेवाड़ी फौज ने भी मुकाबला किया।

औरंगज़ेब ने अपनी सेना को कई टुकड़ों में बांट रखा था, ऐसे में महाराणा राजसिंह ने एक बादशाही फौज से लड़ने के लिए सलूम्बर रावत रतनसिंह चुण्डावत को तुरंत बुलावा भिजवाया।

कुछ इतिहासकारों ने यह घटना चारूमति विवाह प्रकरण के दौरान होना बताई है, जो कि सही नहीं है, क्योंकि उस समय मुगल-मेवाड़ युद्ध हुआ ही नहीं था। इस संबंध में पहले ही चारुमती प्रकरण में लिखा जा चुका है कि महाराणा राजसिंह ने औरंगज़ेब को स्वयं पत्र लिखकर कहा था कि किशनगढ़ में हुए विवाह में कोई फसाद नहीं हुआ। इसलिए निश्चित तौर पर यह घटना 1680 ई. की है।

रावत रतनसिंह चुण्डावत का विवाह कुछ दिन पूर्व ही बूंदी की हाड़ी राजकुमारी इंद्र कंवर से हुआ था। कहीं कहीं इनका नाम सहल कंवर भी लिखा है। रावत रतनसिंह इस विवाह के बाद प्रेम को कर्तव्य से अधिक महत्व देने लगे।

महाराणा राजसिंह का संदेश लेकर एक दूत सलूम्बर के महलों में आया और समाचार सुनाया कि औरंगज़ेब के सेनापति हसन अली खां ने आक्रमण कर दिया है व आप सलूम्बर की फौज लेकर उनसे लड़ने जाओ। रावत रतनसिंह का सीधा सामना औरंगज़ेब से नहीं, बल्कि हसन अली खां से हुआ था।

महाराणा का आदेश होने की खातिर रावत रतनसिंह जैसे-तैसे युद्ध की तैयारी कर महलों से बाहर निकले, कि तभी उनको अपनी रानी का विचार आया और एक सेवक से कहा कि “जाओ और हाड़ी रानी से कोई निशानी लेकर आओ, ताकि युद्धभूमि में मुझे उनकी याद आए तो उसे देख लूँ”

सेवक ने महल में जाकर दासी को यह सूचना दी और दासी ने सारा हाल रानी इंद्र कंवर से कह सुनाया। हाड़ी रानी इंद्र कंवर ने सोचा कि रावत जी युद्धभूमि में भी मेरे बारे में ही सोचते रहेंगे और कर्तव्य से मुंह मोड़ लेंगे।

रानी ने दासी से कहा कि “ये निशानी जब रावत जी को दो तब उनसे कहना कि इस संसार में पत्नी प्रेम से बढ़कर मातृभूमि है”। इतना कहकर हाड़ी रानी ने उसी समय तलवार निकाली व अपना शीश काटकर निशानी के तौर पर थाल में रख दिया और एक ऐसा बलिदान दिया जिसका संसार भर में कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। चुण्डावत मांगी सैनाणी, सिर काट दे दियो क्षत्राणी।

जब रावत रतनसिंह ने थाल में सजा अपनी प्रिय रानी का कटा शीश देखा तो देखते रह गए और कहने लगे कि “रानी ने तो अपना कर्तव्य निभा दिया और हमें भी कर्तव्य का पाठ पढ़ा गई, सौगंध एकलिंग नाथ की विजय पाऊं या वीरगति पर हारकर महलों में नहीं आऊंगा”

इतना कहकर रावत रतनसिंह ने हाड़ी रानी के नरमुण्ड को अपने गले में बांधा और लड़ने निकल पड़े। इस समय हसन अली खां 3200 घुड़सवार व 5000 पैदल सेना के साथ 12 कोस तक मेवाड़ के पहाड़ों में आ गया।

सलूम्बर के रावत रतनसिंह चुण्डावत, सरदारगढ़ के डोडिया ठाकुर नवलसिंह, बेगूं के रावत महासिंह चुण्डावत, पारसोली के राव केसरीसिंह चौहान ने अपनी सेना सहित मुगल फौज पर जोरदार आक्रमण किया।

मेवाड़ की तरफ से डोडिया ठाकुर नवलसिंह अपने बेटे मुह्कमसिंह व कृष्णसिंह समेत वीरगति को प्राप्त हुए।हाड़ी रानी के बलिदान से ओतप्रोत राजपूतों के कहर से मुगल फौज में तबाही मच गई, सैंकड़ों मुगल मारे गए और हसन अली खां बाकी फौज समेत भागकर औरंगज़ेब के पास पहुंचा और सारा हाल कह सुनाया।

तब औरंगज़ेब ने अपनी सेना कुछ समय के लिए उदयपुर से हटाकर चित्तौड़गढ़ व राजसमंद की तरफ लगा ली। यह घटना मेवाड़ में बहुत प्रसिद्ध हुई, जिसके चलते कुछ खयाली बातें भी प्रसिद्ध हो गई, जिसमें एक ये है कि युद्ध के बाद रावत रतनसिंह ने आत्महत्या कर ली। असल में रावत रतनसिंह ने हसन अली खां को पराजित करने के बाद भी कई युद्ध लड़े, जिनका वर्णन मौके पर किया जाएगा।

सागर के आंसू रोई थी चम्बल की धार भी, इससे बड़ी कथा नहीं मिलेगी प्यार की। चुण्डा को जंग जीत का आशीष दे दिया, थाली में काट क्षत्राणी ने शीश दे दिया। हाड़ी रानी के बलिदान व रावत रतनसिंह चुंडावत की वीरता को शत शत नमन….

राजस्थान राज्य की पहली महिला बटालियन के रूप में हाड़ी रानी बटालियन की स्थापना 2008 में की गई थी, इसका मुख्यालय अजमेर में स्थित है।

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