व्यापारी या दुकानदार को किसी दिवस कोई ग्राहक ना मिलें तो वह जल्दी दुकान बन्द नही करता ।
निश्चित समय तक बना ही रहता है ।
परन्तु हम भगवत पथिक धैर्य को कहीं पटक आते है , उत्कंठा का अर्थ पथ छोड़ना नही है , उत्कंठा तो वह है जिसे पथ पाथेय (लक्ष्य) से भी हितकर रुचिकर लगें । प्रतिक्षा ही तप है , वह क्षण क्षण में कल्प सम व्यथा भरती रहें । प्रतिक्षा है तो मिलन सघन होगा ही ।
बहुत जल्दी बाह्य विरक्त भी ना होवें , हृदय और मन विरक्त होते रहें । उनका खेल ही बिगाड़ कर उनके खेल में प्रवेश ना सम्भव है ।
भीतर सँग श्रीहरि गुरू हो मात्र ।
सबको सुनिये , मनन कीजिये कृपा सद्गुरु जू की दर्शन रखिये ।
सद्गुरु कृपा से व्यापक रसिकता का अनुभव हो जाना चाहिये ।
सन्त पारसमणि है सुना ही होगा । परन्तु जो पारस मणि हमें छूकर ... तब उस कनक स्थिति में चहुं ओर पारस ही सँग और दृश्य हो । गुरू जीव को पारस मणि की सुधा में डाल देते है उसके जीवन में चहुं ओर सन्त होते है । दृष्टि में रँग हो तब रंगोत्सव दिखेगा ।
भीतर भावना न हो तब तो आचार्य या परमगुरू में भी श्रद्धा कैसे होगी ??
श्रद्धा है ही तो वह है ही , जा नही रही है । इस स्थिति में तो कोई भी ऐसा न होगा जो रसिक ना हो ।
व्यापक रसिकता का दर्शन ही गुरूकृपा है परन्तु यह अनुभव भीतर भरा हो ।
निश्चित समय तक बना ही रहता है ।
परन्तु हम भगवत पथिक धैर्य को कहीं पटक आते है , उत्कंठा का अर्थ पथ छोड़ना नही है , उत्कंठा तो वह है जिसे पथ पाथेय (लक्ष्य) से भी हितकर रुचिकर लगें । प्रतिक्षा ही तप है , वह क्षण क्षण में कल्प सम व्यथा भरती रहें । प्रतिक्षा है तो मिलन सघन होगा ही ।
बहुत जल्दी बाह्य विरक्त भी ना होवें , हृदय और मन विरक्त होते रहें । उनका खेल ही बिगाड़ कर उनके खेल में प्रवेश ना सम्भव है ।
भीतर सँग श्रीहरि गुरू हो मात्र ।
सबको सुनिये , मनन कीजिये कृपा सद्गुरु जू की दर्शन रखिये ।
सद्गुरु कृपा से व्यापक रसिकता का अनुभव हो जाना चाहिये ।
सन्त पारसमणि है सुना ही होगा । परन्तु जो पारस मणि हमें छूकर ... तब उस कनक स्थिति में चहुं ओर पारस ही सँग और दृश्य हो । गुरू जीव को पारस मणि की सुधा में डाल देते है उसके जीवन में चहुं ओर सन्त होते है । दृष्टि में रँग हो तब रंगोत्सव दिखेगा ।
भीतर भावना न हो तब तो आचार्य या परमगुरू में भी श्रद्धा कैसे होगी ??
श्रद्धा है ही तो वह है ही , जा नही रही है । इस स्थिति में तो कोई भी ऐसा न होगा जो रसिक ना हो ।
व्यापक रसिकता का दर्शन ही गुरूकृपा है परन्तु यह अनुभव भीतर भरा हो ।
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